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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 15/ मन्त्र 1
    ऋषिः - शङ्खो यामायनः देवता - पितरः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उदी॑रता॒मव॑र॒ उत्परा॑स॒ उन्म॑ध्य॒माः पि॒तर॑: सो॒म्यास॑: । असुं॒ य ई॒युर॑वृ॒का ऋ॑त॒ज्ञास्ते नो॑ऽवन्तु पि॒तरो॒ हवे॑षु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ई॒र॒ता॒म् । अव॑रे । उत् । परा॑सः । उत् । म॒ध्य॒माः । पि॒तरः॑ । सो॒म्यासः॑ । असु॑म् । ये । ई॒युः । अ॒वृ॒काः । ऋ॒त॒ऽज्ञाः । ते । नः॒ । अ॒व॒न्तु॒ । पि॒तरः॑ । हवे॑षु ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितर: सोम्यास: । असुं य ईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । ईरताम् । अवरे । उत् । परासः । उत् । मध्यमाः । पितरः । सोम्यासः । असुम् । ये । ईयुः । अवृकाः । ऋतऽज्ञाः । ते । नः । अवन्तु । पितरः । हवेषु ॥ १०.१५.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 15; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] इन मन्त्रों का ऋषि ('यामायन:') = यम पुत्र अर्थात् अत्यन्त संयमी जीवनवाला ('शंख:') = शान्त इन्द्रियों वाला है । यह प्रार्थना करता है कि हमारे जीवनों में (अवरे पितरः) = सब से प्रथम स्थान में प्राप्त होनेवाले माता-पिता रूप पितर (उदीरताम्) = उत्कृष्ट गति वाले हों। वे हमारे जीवनों में चरित्र व शिष्टाचार की स्थापना के लिये यत्नशील हों। [२] (उत्) = और (मध्यमाः) = मध्यम श्रेणी के पितर अर्थात् हमारे जीवनों के मध्यकाल में शिक्षा के द्वारा हमारा रक्षण करनेवाले आचार्य [उदीरताम्] ज्ञान प्रदान की क्रिया में सदा सचेष्ट हों। [३] (उत्) = और (परासः) = जीवन के परभाग में हमारे घरों में प्राप्त होनेवाले अतिथि रूप पर पितर सदा सत्प्रेरणा देते हुए [उदीरताम् ] उत्कृष्ट गति वाले हों। [४] 'मातृ देवो भव - पितृ देवो भव - आचार्य देवो भव - अतिथि देवो भव' इन उपनिषद् के शब्दों में इन्हीं पितरों का उल्लेख है । ये सब के पितर (सोम्यासः) = अत्यन्त सोम्य स्वभाव के हों। स्वयं सोम्य होकर ही ये हमें सोम्य बना पाएँगे। [५] (ये) = जो (पिता असुं ईयुः) = प्राणशक्ति को प्राप्त हैं अर्थात् जीवित हैं, जीवनी शक्ति से परिपूर्ण हैं, और (अवृकाः) = लोभ से रहित हैं, (ऋतज्ञाः) = ऋत को जाननेवाले हैं, यज्ञशील हैं, (ते) = वे (पितरः) = पितर हवेषु हमारी प्रार्थना व पुकार के होने पर (नः अवन्तु) = हमारा रक्षण करें। एवं पितरों के लक्षण ये हैं कि वे [क] प्राणशक्ति- सम्पन्न हैं, [ख] लोभरहित हैं, [ग] ऋतज्ञ हैं, यज्ञशील हैं, [घ] सोम्य हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- सोम्य, प्राणशक्ति सम्पन्न, निर्लोभ व यज्ञशील पितर हमारे जीवनों में हमारा रक्षण करनेवाले हों ।

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