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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 15/ मन्त्र 3
    ऋषिः - शङ्खो यामायनः देवता - पितरः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आहं पि॒तॄन्त्सु॑वि॒दत्राँ॑ अवित्सि॒ नपा॑तं च वि॒क्रम॑णं च॒ विष्णो॑: । ब॒र्हि॒षदो॒ ये स्व॒धया॑ सु॒तस्य॒ भज॑न्त पि॒त्वस्त इ॒हाग॑मिष्ठाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । अ॒हम् । पि॒तॄन् । सु॒ऽवि॒दत्रा॑न् । अ॒वि॒त्सि॒ । नपा॑तम् । च॒ । वि॒ऽक्रम॑णम् । च॒ । विष्णोः॑ । ब॒र्हि॒ऽसदः॑ । ये । स्व॒धया॑ । सु॒तस्य॑ । भज॑न्त । पि॒त्वः । ते । इ॒ह । आऽग॑मिष्ठाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आहं पितॄन्त्सुविदत्राँ अवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णो: । बर्हिषदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वस्त इहागमिष्ठाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । अहम् । पितॄन् । सुऽविदत्रान् । अवित्सि । नपातम् । च । विऽक्रमणम् । च । विष्णोः । बर्हिऽसदः । ये । स्वधया । सुतस्य । भजन्त । पित्वः । ते । इह । आऽगमिष्ठाः ॥ १०.१५.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 15; मन्त्र » 3
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    [१] (अहम्) = मैं (सुविदत्रान्) = उत्तम ज्ञान के द्वारा रक्षण करनेवाले (पितॄन्) = पितरों को (आ अवित्सि) = सर्वथा प्राप्त होऊँ । माता, पिता, आचार्य व अतिथि ये सब ज्ञान के द्वारा हमारा रक्षण करनेवाले हों। (च) = और परिणामतः मैं (न-पातम्) = न गिरने को, अर्थात् धर्ममार्ग में स्थिरता को प्राप्त करूँ। (च) = तथा (विष्णोः विक्रमणम्) = विष्णु के विक्रमण को भी मैं प्राप्त करूँ । 'स्वस्थ शरीर, निर्मल मन व दीप्त मस्तिष्क' होऊँ । शरीर का स्वास्थ्य ही पृथिवीलोक का विजय है, मन की निर्मलता अन्तरिक्षलोक का विजय है और मस्तिष्क की दीप्ति द्युलोक का । यह त्रिविध विजय ही विष्णु के तीन विक्रमण हैं । [२] मैं उन पितरों को प्राप्त करूँ (ये) = जो (बर्हिषदः) = यज्ञों में आसीन होनेवाले हैं और जो (स्व-धया) = आत्मतत्त्व के धारण के हेतु से (पित्वः) = अन्न के (सुतस्य) = परिणाम भूत सोम के वीर्य को (भजन्त) = भागी बनते हैं । वीर्य के रक्षण के उद्देश्य से प्रभु का उपासन करते हैं। अथवा आत्मतत्त्व के धारण के लिये वीर्य का रक्षण करते हैं। वीर्यरक्षण से ज्ञानाग्नि व बुद्धि दीत होकर प्रभु के साक्षात्कार का कारण बनती है। ते वे पितर इह इस जीवन में (आगमिष्ठा:) = हमें प्राप्त हों।

    भावार्थ - भावार्थ- हमें उन पितरों की प्राप्ति हो जो कि ज्ञान के द्वारा हमारा रक्षण करें, यज्ञशील हों, प्रभु प्राप्ति के उद्देश्य से वीर्य का रक्षण करनेवाले हों। इनके सम्पर्क से हम भी मार्गभ्रष्ट न होते हुए शरीर, मन व मस्तिष्क की उन्नति रूप तीन कदमों को रखनेवाले हों ।

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