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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 156 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 156/ मन्त्र 5
    ऋषिः - केतुराग्नेयः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अग्ने॑ के॒तुर्वि॒शाम॑सि॒ प्रेष्ठ॒: श्रेष्ठ॑ उपस्थ॒सत् । बोधा॑ स्तो॒त्रे वयो॒ दध॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । के॒तुः । वि॒शाम् । अ॒सि॒ । प्रेष्ठः॑ । श्रेष्ठः॑ । उ॒प॒स्थ॒ऽसत् । बोध॑ । स्तो॒त्रे । वयः॑ । दध॑त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने केतुर्विशामसि प्रेष्ठ: श्रेष्ठ उपस्थसत् । बोधा स्तोत्रे वयो दधत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने । केतुः । विशाम् । असि । प्रेष्ठः । श्रेष्ठः । उपस्थऽसत् । बोध । स्तोत्रे । वयः । दधत् ॥ १०.१५६.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 156; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन्! आप (विशाम्) = सब प्रजाओं के (केतुः) = प्रज्ञान को देनेवाले (असि) = हैं आप ही ज्ञान को प्राप्त करानेवाले हैं। (प्रेष्ठः) = प्रियतम हैं। (श्रेष्ठः) = प्रशस्यतम हैं । (उपस्थसत्) = सबके समीप विद्यमान हैं। [२] (बोधा) = आप ही सबको जानते हैं। सबके रक्षण का आप ही ध्यान करते हैं। (स्तोत्रे) = स्तुतिकर्ता के लिये (वयः) = उत्कृष्ट जीवन को दधत् धारण करते हैं। स्तोता का जीवन, आपके गुणों के धारण से सुन्दर बनता है। |

    भावार्थ - भावार्थ - प्रभु ही प्रियतम हैं, प्रशस्यतम हैं। वे ही हमें उत्कृष्ट जीवन प्राप्त कराते हैं । सूक्त का विषय ही है कि प्रभु का अवलम्बन करके हम सब धनों को प्राप्त करते हैं । सब शत्रुओं को पराजित करके उत्कृष्ट जीवनवाले बनते हैं । यह शरीरस्थ तीनों भुवनों को, 'पृथिवीरूप शरीर, अन्तरिक्षरूप हृदय तथा द्युलोकरूप मस्तिष्क' को वशीभूत करने से 'भुवन' कहलाता है [भुवनानि अस्य सन्ति इति] यही प्रभु को प्राप्त करनेवालों में उत्तम होने से 'आप्त्य' है। प्रभु प्राप्ति की साधनावाले होने से 'साधन: ' है तथा लोकहित में प्रवृत्त होने से 'भौवना' कहलाता है। यह यही आराधना करता है कि-

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