साइडबार
ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 171/ मन्त्र 2
त्वं म॒खस्य॒ दोध॑त॒: शिरोऽव॑ त्व॒चो भ॑रः । अग॑च्छः सो॒मिनो॑ गृ॒हम् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । म॒खस्य॑ । दोध॑तः । शिरः॑ । अव॑ । त्व॒चः । भ॒रः॒ । अग॑च्छः । सो॒मिनः॑ । गृ॒हम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं मखस्य दोधत: शिरोऽव त्वचो भरः । अगच्छः सोमिनो गृहम् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । मखस्य । दोधतः । शिरः । अव । त्वचः । भरः । अगच्छः । सोमिनः । गृहम् ॥ १०.१७१.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 171; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
विषय - यज्ञ-ध्वंसक का विनाश
पदार्थ -
[१] हे प्रभो ! (त्वम्) = आप (मखस्य दोधतः) = यज्ञ को कम्पित करनेवाले पुरुष के यज्ञ- विध्वंसक के (शिरः) = सिर को (त्वचः) = त्वचा से, इस त्वचा से आवृत शरीर से (अवभर:) = अलग कर देते हैं। जो व्यक्ति यज्ञशील न बनकर औरों से किये जानेवाले यज्ञों में भी विघ्न करनेवाला होता है, प्रभु उसे विनष्ट करते हैं । [२] यज्ञादि में प्रवृत्त रहकर (सोमिनः) = सोम का रक्षण करनेवाले पुरुष के (गृहं अगच्छ:) = घर में प्रभु जाते हैं । यज्ञशील पुरुष के गृह में प्रभु का वास होता है । इस प्रभु के वास से उसके जीवन में वासनाएँ नहीं पनपती और वह सोम का [= वीर्य का] रक्षण करनेवाला बनता है ।
भावार्थ - भावार्थ- हम यज्ञशील बनकर प्रभु को अपने गृह में आमन्त्रित करें ।
इस भाष्य को एडिट करें