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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 171/ मन्त्र 3
त्वं त्यमि॑न्द्र॒ मर्त्य॑मास्त्रबु॒ध्नाय॑ वे॒न्यम् । मुहु॑: श्रथ्ना मन॒स्यवे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । त्यम् । इ॒न्द्र॒ । मर्त्य॑म् । आ॒स्त्र॒ऽबु॒ध्नाय॑ । वे॒न्यम् । मुहुः॑ । श्र॒थ्नाः॒ । म॒न॒स्यवे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं त्यमिन्द्र मर्त्यमास्त्रबुध्नाय वेन्यम् । मुहु: श्रथ्ना मनस्यवे ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । त्यम् । इन्द्र । मर्त्यम् । आस्त्रऽबुध्नाय । वेन्यम् । मुहुः । श्रथ्नाः । मनस्यवे ॥ १०.१७१.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 171; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
विषय - 'आत्मबुध्न-मनस्यु'
पदार्थ -
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यवन् प्रभो ! (त्वम्) = आप (त्यम्) = उस (वेन्यं मर्त्यम्) = [ वेन्- चिन्तायाम् ] निरन्तर विषयों की चिन्ता व कामना करनेवाले 'कामकामी' पुरुष को, विषयों के पीछे मरनेवाले व्यक्ति को (आस्त्रबुध्नाय) = [प्रणवो धनुः] प्रणव- ओंकार रूप अस्त्र को अपना आधार बनानेवाले (मनस्यवे) = विचारशील पुरुष के लिये (मुहुः श्रथ्ना) = निरन्तर विनष्ट करते हो [ मुहुस्=constantly]। [२] प्रभु का उपासन हमें वेन्य से ' आस्त्रबुध्न मनस्यु' बनाता है। उपासना के होने पर हमारी वृत्ति विषयों से विमुख होकर प्रभु-प्रवण होती है। हम प्रभु के 'ओ३म्' नाम को अपना धनुष बनाते हैं । यही हमारे वासनारूप शत्रुओं का विनाश करनेवाला होता है। ऐसी स्थिति में हम विचारशील बनते हैं। अब हम संसार के पदार्थों की कामना से ऊपर उठ जाते हैं। आस्त्रबुध्न बनकर वेन्य नहीं रहते।
भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु को अपना आधार बनायें, तभी हम संसार की कामनाओं से ऊपर उठ पायेंगे।
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