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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 171/ मन्त्र 4
त्वं त्यमि॑न्द्र॒ सूर्यं॑ प॒श्चा सन्तं॑ पु॒रस्कृ॑धि । दे॒वानां॑ चित्ति॒रो वश॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । त्यम् । इ॒न्द्र॒ । सूर्य॑म् । प॒श्चा । सन्त॑म् । पु॒रः । कृ॒धि॒ । दे॒वाना॑म् । चि॒त् । ति॒रः । वश॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं त्यमिन्द्र सूर्यं पश्चा सन्तं पुरस्कृधि । देवानां चित्तिरो वशम् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । त्यम् । इन्द्र । सूर्यम् । पश्चा । सन्तम् । पुरः । कृधि । देवानाम् । चित् । तिरः । वशम् ॥ १०.१७१.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 171; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
विषय - अस्तंगत सूर्य का पुनः उदय
पदार्थ -
[१] हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (त्वम्) = आप (त्यम्) = उस (पश्चा सन्तम्) = पश्चिम में अस्त हुए (सूर्यम्) = सूर्य को (पुरः कृधि) = फिर पूर्व में उदित करिये। [२] (देवानाम्) = देवों के देववृत्तिवाले पुरुषों के (चित्) = भी (तिरः) = तिरोहित हुए हुए (वशम्) = कमनीय-कान्त - ज्ञान सूर्य को भी आवरण के विनाश के द्वारा प्रकट करिये ।
भावार्थ - भावार्थ- हे प्रभो ! जैसे आप अस्तंगत सूर्य को पुनः उदित करते हैं, इसी प्रकार आप देववृत्तिवाले पुरुषों के ज्ञानसूर्य को भी उदित करिये। सम्पूर्ण सूक्त इस बात का वर्णन करता है कि गतिशील उपासक अपने जीवन को प्रकाशमय बना पाता है। अपने जीवन का सुन्दर परिवर्तन करनेवाला यह 'संवर्त' है, वासनारहित होने से यह शक्तिशाली अंगोंवाला 'आंगिरस' बनता है। यह उषा का ध्यान करता हुआ अपने जीवन को अगले सूक्त में वर्णित प्रकार से साधता है-
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