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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 172 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 172/ मन्त्र 2
    ऋषिः - संवर्तः देवता - उषाः छन्दः - पिपीलिकामध्यागायत्री स्वरः - षड्जः

    आ या॑हि॒ वस्व्या॑ धि॒या मंहि॑ष्ठो जार॒यन्म॑खः सु॒दानु॑भिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । या॒हि॒ । वस्व्या॑ । धि॒या । मंहि॑ष्ठः । जा॒र॒यत्ऽम॑खः । सु॒दानु॑ऽभिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ याहि वस्व्या धिया मंहिष्ठो जारयन्मखः सुदानुभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । याहि । वस्व्या । धिया । मंहिष्ठः । जारयत्ऽमखः । सुदानुऽभिः ॥ १०.१७२.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 172; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 30; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [१] हे उषः ! तू (वस्व्या) = प्रशस्त वसुओं को प्राप्त करानेवाली (धिया) = बुद्धि के साथ (आ याहि) = हमें प्राप्त हो । स्वाध्याय के द्वारा हमारी बुद्धि इस प्रकार शुद्ध हो कि हम अपने जीवन में निवासक तत्त्वों को धारण करनेवाले हों। [२] यह उषा में प्रबुद्ध होनेवाला व्यक्ति (सुदानुभिः) = उत्तम दानवृत्तियों के द्वारा (मंहिष्ठः) = दातृतम बनता है और (जारयन्मखः) = यज्ञों को पूर्णता तक पहुँचानेवाला होता है ।

    भावार्थ - भावार्थ- हम उषाकाल में स्वाध्याय के द्वारा उत्तम निवासवाले हों। दानवृत्तिवाले बनकर यज्ञशील हों ।

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