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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 172/ मन्त्र 2
आ या॑हि॒ वस्व्या॑ धि॒या मंहि॑ष्ठो जार॒यन्म॑खः सु॒दानु॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । या॒हि॒ । वस्व्या॑ । धि॒या । मंहि॑ष्ठः । जा॒र॒यत्ऽम॑खः । सु॒दानु॑ऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ याहि वस्व्या धिया मंहिष्ठो जारयन्मखः सुदानुभिः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । याहि । वस्व्या । धिया । मंहिष्ठः । जारयत्ऽमखः । सुदानुऽभिः ॥ १०.१७२.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 172; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
पदार्थ
(वस्व्या धिया) हे उषा के समान कान्तिवाली गृहदेवी ! नववधू ! धनेश्वर्य की प्राप्ति के निमित्त-कर्मप्रवृत्ति के द्वारा (आ याहि) आ-प्राप्त हो (मंहिष्ठः) अत्यन्त धनदाता पति (सुदानुभिः) श्रेष्ठ दानों के द्वारा (जारयन्मखः) समाप्त यज्ञ होने तक अर्थात् जब तक सन्तान के सन्तान हो जावे, गृहस्थयज्ञ का अनुष्ठानी होता है ॥२॥
भावार्थ
पत्नी घर में आ जाने पर धनैश्वर्य की प्राप्ति के निमित्त अपनी कर्मप्रवृत्ति रखे, पति अत्यधिक धन कमानेवाला और दानी-दान प्रवृत्तिवाला पत्नी एवं अन्यों के लिये हो। शास्त्रमर्यादानुसार गृहस्थयज्ञ को चलाये, जब तक सन्तान के सन्तान हो जाये ॥२॥
विषय
उत्तम बुद्धि व यज्ञ
पदार्थ
[१] हे उषः ! तू (वस्व्या) = प्रशस्त वसुओं को प्राप्त करानेवाली (धिया) = बुद्धि के साथ (आ याहि) = हमें प्राप्त हो । स्वाध्याय के द्वारा हमारी बुद्धि इस प्रकार शुद्ध हो कि हम अपने जीवन में निवासक तत्त्वों को धारण करनेवाले हों। [२] यह उषा में प्रबुद्ध होनेवाला व्यक्ति (सुदानुभिः) = उत्तम दानवृत्तियों के द्वारा (मंहिष्ठः) = दातृतम बनता है और (जारयन्मखः) = यज्ञों को पूर्णता तक पहुँचानेवाला होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम उषाकाल में स्वाध्याय के द्वारा उत्तम निवासवाले हों। दानवृत्तिवाले बनकर यज्ञशील हों ।
विषय
उत्तम गृहिणी के कर्त्तव्यों का उपदेश। गृहस्थ यज्ञ का उपदेश।
भावार्थ
हे (उषः) विदुषि स्त्रि ! तू (वस्व्या धिया) वसु अर्थात् बसने वाले पुरुष के अनुरूप बसने वाली उत्तम स्त्री, गृहिणी के योग्य बुद्धि और कर्मसहित (आ याहि) आ। और इसी प्रकार (मंहिष्ठः) अति दानशील, पुरुष भी (सु-दानुभिः) उत्तम दातव्य धनों सहित (जारयत्-मखः) गृहस्थ यज्ञ को पूर्ण रीति से समाप्त करने वाला हो, वह जीवन भर के यज्ञ को तेरे साथ मिलकर पूरा करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः संवर्तः॥ उषा देवताः॥ छन्दः—पिपीलिकामध्या गायत्री ॥ चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(वस्त्र्या धिया-आ याहि) हे उषा ! तू धनैश्वर्य प्राप्ति निमित्त "धीः कर्मनाम" [निघ० २।१] कर्मप्रवृत्ति से प्राप्त हो, यतः (मंहिष्ठ:) अत्यन्त दानदाता यजमान "वंहते दर्शन कर्मण:" [निरु० १।१] (जारयन्मखः) समाप्ति-पूर्ण: यज्ञ करने वाला (सुदानुभिः) अपने अच्छे दानों से "दानुनस्पती दानपती" [निरु० २।१३] यज्ञकरणार्थ उद्यत हो सकें ॥२॥
विशेष
ऋषिः- आङ्गिरसः संवर्तः (सूर्यरश्मियों से पूर्ण आकाश के ज्ञान से पूर्ण विद्वान्) देवता — उषाः ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वस्व्या धिया-आ याहि) हे उषः ! कान्तिमति गृहदेवि ! धनैश्वर्यप्राप्तिनिमित्तभूतया-कर्मप्रवृत्त्या “धीः कर्मनाम” [निघ० २।१] आगच्छ-प्राप्ता भव (मंहिष्ठः) अतिशयितधनदाता पतिः “मंहतेर्दानकर्मणः” [निरु० १।१] (सुदानुभिः) श्रेष्ठदानैः “दानुनस्पती-दानपती” [निरु० २।१३] (जारयन्मखः) समापयद्यज्ञः-यावद् गृहस्थयज्ञः समाप्तिं गच्छेत्-अपत्यस्या-पत्यमिति तावत् कालं यज्ञानुष्ठानी भवति ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Come with blessed intelligence and holy action. The most generous yajamana is on way to completion of the yajna with most liberal gifts of homage.
मराठी (1)
भावार्थ
पत्नी घरी आल्यावर तिने धन, ऐश्वर्यप्राप्तीसाठी कर्म करण्याची प्रवृत्ती ठेवावी. पती खूप धन कमावणारा असावा. दानी असावा. पत्नीसाठी व इतरांसाठीही तसाच असावा. जोपर्यंत संतानाला संतान होईल तोपर्यंत शास्त्रधर्म मर्यादेनुसार गृहस्थयज्ञ चालवावा. ॥२॥
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