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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 172 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 172/ मन्त्र 3
    ऋषिः - संवर्तः देवता - उषाः छन्दः - पिपीलिकामध्यागायत्री स्वरः - षड्जः

    पि॒तु॒भृतो॒ न तन्तु॒मित्सु॒दान॑व॒: प्रति॑ दध्मो॒ यजा॑मसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पि॒तु॒ऽभृतः॑ । न । तन्तु॑म् । इत् । सु॒ऽदान॑वः । प्रति॑ । द॒ध्मः॒ । यजा॑मसि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पितुभृतो न तन्तुमित्सुदानव: प्रति दध्मो यजामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पितुऽभृतः । न । तन्तुम् । इत् । सुऽदानवः । प्रति । दध्मः । यजामसि ॥ १०.१७२.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 172; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (पितुभृतः) अन्नधारक-अन्नवाले (सुदानवः-न) उत्तम दानियों के समान (तन्तुम्-इत्) हम जीवनतन्तु-जीवनक्रम को अवश्य (प्रतिदध्मः) पुनः-पुनः धारण करते हैं-सन्तानक्रम चलाते हैं (यजामसि) इसलिए अपने समस्त कार्यों को संगत करते हैं, युक्त करते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    गृहस्थ लोग अन्न कमानेवाले हों, ऐसे ही वे-अच्छे दानी भी हों, जैसे दानी निरन्तर कमाते जाते हैं और दान देते हैं, ऐसे सन्तानों का क्रम भी चलाते रहना चाहिये, अपने समस्त कार्यों को ठीक जोड़ना चाहिये, संगति से करना चाहिए ॥३॥

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    विषय

    दान व उत्तम सन्तान

    पदार्थ

    [१] (पितृभृतः नः) = उत्तम अन्नों का भरण करनेवाले पुरुषों के समान (सुदानवः) = उत्तम दानशील होते हुए हम (इत्) = निश्चय से (तन्तुम्) = [प्रजातन्तुम्] प्रजातन्तु को (प्रतिदध्मः) = धारण करते हैं। इस दान की वृत्ति से हमारे सन्तान उत्तम बनते हैं ' श्रदस्मै वचसे नरो दधातन यदाशीर्दा दम्पती वाममश्रुतः'। [२] हे उषः ! हम (यजामसि) = यज्ञशील बनते हैं। बड़ों के पूजन, बराबरवालों से प्रेमपूर्वक संगतिकरण व सदा दान की वृत्तिवाले बनते हैं 'यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु' ।

    भावार्थ

    भावार्थ - दानवृत्तिवाले बनकर हम सन्तान को उत्तम बनाते हैं ।

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    विषय

    प्रजातन्तु को धारण करने का उपदेश।

    भावार्थ

    (पितु-भृतः सुदानवः न) अन्न धारण करने वाले जनों के लिये पालक बल और अन्न से सम्पन्न हम लोग (तन्तुम् इत् दध्मः) यज्ञ के समान प्रजा-तन्तु को धारण करें, और (यजामसि) यज्ञ करें, और मिलकर रहें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः संवर्तः॥ उषा देवताः॥ छन्दः—पिपीलिकामध्या गायत्री ॥ चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (पितुभृतः सुदानवः-न) अन्न को धारणा करने वाले अच्छे दानियों की भांति (तन्तुम्-इत् प्रतिदध्मः) अपने जीवनतन्तु को- जीवन जागरण को पुनः धारण करें (यजामसि) अतः-उषोवेला में अपने समस्त कार्यों को सङ्गत करें ॥३॥

    टिप्पणी

    "वर्तनिं रथं सचन्ते सेवन्ते" (सायणः)

    विशेष

    ऋषिः- आङ्गिरसः संवर्तः (सूर्यरश्मियों से पूर्ण आकाश के ज्ञान से पूर्ण विद्वान्) देवता — उषाः ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (पितुभृतः सुदानवः-न) अन्नधारका-अन्नवन्तः “पितुः-अन्ननाम” [निघ० २।७] सुष्ठुदातार इव (तन्तुम्-इत् प्रतिदध्मः) वयं जीवनतन्तुं जीवनक्रममवश्यं पुनर्धारयामः अतः (यजामसि) उषोवेलायां स्वकीयसमस्तकार्याणि सङ्गमयामः ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Like generous performers of yajna bearing homage of havi and food, we carry on the thread of life and yajna from dawn to dawn.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    गृहस्थांनी अन्न संग्रह करावा, तसेच ते दानीही असावेत. जसे दानी सतत कमावतात, तसेच दानही देत असतात. असाच संतानांनीही क्रम चालू ठेवावा. आपले सर्व काम योग्य रीतीने व संगतीने सिद्ध करावे. ॥३॥

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