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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 172 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 172/ मन्त्र 4
    ऋषिः - संवर्तः देवता - उषाः छन्दः - पिपीलिकामध्यागायत्री स्वरः - षड्जः

    उ॒षा अप॒ स्वसु॒स्तम॒: सं व॑र्तयति वर्त॒निं सु॑जा॒तता॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒षाः । अप॑ । स्वसुः॑ । तमः॑ । सम् । व॒र्त॒य॒ति॒ । व॒र्त॒निम् । सु॒ऽजा॒तता॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उषा अप स्वसुस्तम: सं वर्तयति वर्तनिं सुजातता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उषाः । अप । स्वसुः । तमः । सम् । वर्तयति । वर्तनिम् । सुऽजातता ॥ १०.१७२.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 172; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 30; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (उषाः) जैसे प्रातःकाल की उषा (स्वसुः) बहनरूप रात्रि के (तमः) अन्धकार को (अप वर्तयति) हटाती है, ऐसे ही उषा कान्तिवाली गृहदेवी (स्वसुः) अर्थात् अच्छी प्रेरणा करनेवाली सास के शोकान्धकार को उसके पुत्रोत्पादन से अपवर्तयति-दूर करती है (सुजातता) सुप्रसिद्धि से घर में सुप्रतिष्ठित हो जाने से (वर्तनिम्) बर्ताव-व्यवहार को (सं वर्तयति) सम्यक् चलाती है, अवकाश को पूरा करती है ॥४॥

    भावार्थ

    गृहदेवी सास की प्रेरणा प्राप्त करे, पुत्रादि उत्पन्न कर सास के शोक को दूर करे और दोनों परस्पर मेल से रहें और घर में प्रतिष्ठित होकर व्यवहार को भली प्रकार चलावें, प्रत्येक कार्य की पूर्ति करें ॥४॥

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    विषय

    ज्ञान व उत्तम विकास

    पदार्थ

    [१] (उषा) = उषाकाल (स्वसुः) = अपनी भगिनी के तुल्य रात्रि के (तमः) = अन्धकार को (अपवर्तयति) = दूर करती है। इसी प्रकार यह (उषा स्व-सुः) = [ स्व + 'सृ' गतौ] आत्मतत्त्व की ओर चलनेवाले पुरुष के (तमः) = अज्ञानान्धकार के विनष्ट करती है। यह आत्मतत्त्व की ओर चलने की वृत्तिवाला पुरुष उषाकाल में स्वाध्याय को करता है और इस प्रकार ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त करता है। [२] यह उषा (सुजातता) = शक्तियों के उत्तम विकास के द्वारा (वर्तनिम्) = हमारे जीवनमार्ग को (संवर्तयति) = सम्यक् परिवर्तित करनेवाली होती है। हमारा जीवन का मार्ग अशुभ को समाप्त करके शुभ का ग्रहण करनेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - उषाकाल में प्रबुद्ध होकर हम स्वाध्याय के द्वारा अज्ञानान्धकार को विनष्ट करें तथा शक्तियों के उत्तम विकास के साथ शुभ का ग्रहण करें। सम्पूर्ण सूक्त इस बात को कह रहा है कि उषाकाल में प्रबुद्ध होकर हम उपासना, स्वाध्याय व यज्ञों में प्रवृत्त हों। ऐसी वृत्तिवाले बनने पर हम जीवन में विषयों से आकृष्ट न होकर 'ध्रुव' वृत्तिवाले होंगे। यह ध्रुव वृत्तिवाला व्यक्ति, विषयों से आन्दोलित न होने के कारण 'आंगिरस' तो होता ही है । यही अगले सूक्त का ऋषि है। ऐसी वृत्तिवाला व्यक्ति ही राष्ट्र का अधिपति होने के योग्य है। इसी बात का वर्णन अगले सूक्त में है-

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    विषय

    स्त्री को उषावत् गृह को सुप्रसन्न बनाए रखने का उपदेश।

    भावार्थ

    (उषाः) उत्तम कान्तिमती, स्त्री उषा के समान ही (स्वसुः तमः) रात्रि के अन्धकार के तुल्य अपने पुत्रादि को उत्पन्न करने वाले वा अपने को प्राप्त पुरुष के (तमः) शोक, क्लेश आदि को (अप वर्त्तयति) दूर करती है और उसके (वर्त्तनिम्) मार्ग या गृह-व्यापार को (सु-जातता) उत्तम पुत्र से वा उत्तम कुल-शील चारित्र से (सं वर्त्तयति) साथ, मिलकर ठीक प्रकार से चलावे। इति त्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः संवर्तः॥ उषा देवताः॥ छन्दः—पिपीलिकामध्या गायत्री ॥ चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (उषाः स्वसुः-तम:) उषा स्वसा-भगिनीरूप रात्रि के अन्धकार को (अपवर्तयति) अपवर्तित कर देती-हटा देती है (सुजातता) 'सुजाततया' सुप्रसिद्धता से-सुरोचकता से सुज्जोति से (वर्तनि संवर्तयति) अपने वर्तन-व्यवहार को या 'वर्तन-अवकाशस्थान को भर देती है ॥४॥

    विशेष

    ऋषिः- आङ्गिरसः संवर्तः (सूर्यरश्मियों से पूर्ण आकाश के ज्ञान से पूर्ण विद्वान्) देवता — उषाः ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (उषाः स्वसुः-तमः-अपवर्तयति ) यथा-उषाः-रात्रिरूपाया भगिन्या अन्धकारमपगमयति तथा कान्तिमती गृहदेवी स्वसुः सुष्ठु- प्रेरिकायाः पति-मातुः-“स्वसा सु-असा” [निरु० ११।३२] शोकान्धकारं-तत्पौत्रोत्पादनेन दूरीकरोति (सुजातता) सुजाततया सुप्रसिद्धतया (वर्तनिं संवर्तयति) वर्तनं व्यवहारं सम्यगाचरति-अवकाशं पूरयति ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The dawn continuously removes the darkness of its sister night, by circular motion of its rise every morning through the succession of day and night.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    गृहदेवीने सासूपासून प्रेरणा घ्यावी. पुत्र इत्यादी उत्पन्न करून सासूचा शोक दूर करावा व दोघींनी मिळून मिसळून राहावे. घरात प्रतिष्ठित बनून व्यवहार पाळावा. प्रत्येक कार्याची पूर्तता करावी. ॥४॥

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