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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 179 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 179/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वसुमना रौहिदश्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    श्रा॒तं म॑न्य॒ ऊध॑नि श्रा॒तम॒ग्नौ सुश्रा॑तं मन्ये॒ तदृ॒तं नवी॑यः । माध्यं॑दिनस्य॒ सव॑नस्य द॒ध्नः पिबे॑न्द्र वज्रिन्पुरुकृज्जुषा॒णः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्रा॒तम् । म॒न्ये॒ । ऊध॑नि । श्रा॒तम् । अ॒ग्नौ । सुऽश्रा॑तम् । म॒न्ये॒ । तत् । ऋ॒तम् । नवी॑यः । माध्य॑न्दिनस्य । सव॑नस्य । द॒ध्नः । पिब॑ । इ॒न्द्र॒ । व॒ज्रि॒न् । पु॒रु॒ऽकृ॒त् । जु॒षा॒णः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्रातं मन्य ऊधनि श्रातमग्नौ सुश्रातं मन्ये तदृतं नवीयः । माध्यंदिनस्य सवनस्य दध्नः पिबेन्द्र वज्रिन्पुरुकृज्जुषाणः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्रातम् । मन्ये । ऊधनि । श्रातम् । अग्नौ । सुऽश्रातम् । मन्ये । तत् । ऋतम् । नवीयः । माध्यन्दिनस्य । सवनस्य । दध्नः । पिब । इन्द्र । वज्रिन् । पुरुऽकृत् । जुषाणः ॥ १०.१७९.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 179; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 37; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    [१] गत मन्त्र के अनुसार वानप्रस्थाश्रम में अपनी पूरी तैयारी करके अब यह पुरुष संन्यस्त होता है। इसका मन सबको उत्तम निवासवाला बनाने की भावनावाला है [वसु मनो यस्य] । यह प्रवृद्ध शक्तियोंवाले इन्द्रियाश्वोंवाला बना है। सो इसका नाम 'वसुमना रौहिदश्व' हो गया है। इसे प्रभु प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि - [क] तुझे (ऊधनि) = वेदवाणी रूप गौ के ज्ञानदुग्ध के आधार में (श्रातं मन्ये) = परिपक्व मानता हूँ। तूने अपने को ज्ञान विदग्ध बनाया है । [ख] (अग्नौ श्रातम्) = अग्नि में भी तू परिपक्व हुआ है । शक्ति सम्पन्नता के कारण तेरे में उत्साह [अग्नि] की भी न्यूनता नहीं है। सो मैं तुझे (सुश्रातं मन्ये) = ठीक परिपक्व हुआ हुआ समझता हूँ। (तद्) = सो तेरा जीवन (ऋतम्) = ठीक है, नियमित है [सत्य है] (नवीयः) = स्तुत्व व गतिशील है [नु स्तुतौ, नव गतौ] [२] सो (इन्द्र) = हे जितेन्द्रिय पुरुष ! वज्रिन् क्रियाशीलता रूप वज्र को हाथ में लिये हुए (पुरुकृत्) = खूब ही कर्म करनेवाले अथवा पालनात्मक व पूरणात्मक कर्म करनेवाले ! तू (जुषाण:) = प्रीतिपूर्वक प्रभु का उपासन करता हुआ (माध्यन्दिनस्य सवनस्य) = जीवन का माध्यन्दिन सवन 'गृहस्थाश्रम' ही है । जीवन के तीन कवन हैं- 'प्रातः सवन' ब्रह्मचर्याश्रम है । 'मध्यन्दिन सवन' गृहस्थ है और 'तृतीय सवन' वानप्रस्थ व संन्यास हैं । उस गृहस्थाश्रम के (दध्नः) = धारणात्मक कर्म को [ धत्ते इति दधि] (पिब) = अपने में व्याप्त करनेवाला बन । तू अपने ज्ञानोपदेशों से गृहस्थ का धारण करनेवाला बन । संन्यासी का मूल कर्त्तव्य यही है कि गृहस्थों को सदुपदेश देता हुआ उनको ठीक मार्ग पर चलानेवाला बने और इस प्रकार उनका धारण करे ।

    भावार्थ - भावार्थ- हम ज्ञान व शक्ति में परिपक्व होकर संन्यस्त हों। ज्ञान प्रचार के द्वारा संसार का धारण करनेवाले बनें । यह सूक्त जीवन को सफलता के साथ बिताने का उल्लेख करता है। यह व्यक्ति 'जय: 'विजयी बनता है। सब शत्रुओं का पराभव करके सफल जीवनवाला होता है। इसी 'जय' का अगला सूक्त है-

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