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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 180/ मन्त्र 1
प्र स॑साहिषे पुरुहूत॒ शत्रू॒ञ्ज्येष्ठ॑स्ते॒ शुष्म॑ इ॒ह रा॒तिर॑स्तु । इन्द्रा भ॑र॒ दक्षि॑णेना॒ वसू॑नि॒ पति॒: सिन्धू॑नामसि रे॒वती॑नाम् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । स॒स॒हि॒षे॒ । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । शत्रू॑न् । ज्येष्ठः॑ । ते॒ । शुष्मः॑ । इ॒ह । रा॒तिः । अ॒स्तु॒ । इन्द्र॑ । आ । भ॒र॒ । दक्षि॑णेन । वसू॑नि । पतिः॑ । सिन्धू॑नाम् । अ॒सि॒ । रे॒वती॑नाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र ससाहिषे पुरुहूत शत्रूञ्ज्येष्ठस्ते शुष्म इह रातिरस्तु । इन्द्रा भर दक्षिणेना वसूनि पति: सिन्धूनामसि रेवतीनाम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । ससहिषे । पुरुऽहूत । शत्रून् । ज्येष्ठः । ते । शुष्मः । इह । रातिः । अस्तु । इन्द्र । आ । भर । दक्षिणेन । वसूनि । पतिः । सिन्धूनाम् । असि । रेवतीनाम् ॥ १०.१८०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 180; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 38; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 38; मन्त्र » 1
विषय - शत्रु- शोषक शक्ति और दान
पदार्थ -
[१] हे (पुरुहूत) = अपने यज्ञात्मक कर्मों के कारण बहुतों से पुकारे जानेवाले जीव ! (शत्रून् प्रससाहिषे) = तू शत्रुओं का पराभव करता है, काम, क्रोध, लोभ आदि को अपने पर प्रबल नहीं होने देता । (ते शुष्मः) = तेरा शत्रु- शोषक बल (ज्येष्ठ) = अत्यन्त बढ़ा हुआ होता है । (इह) = इस जीवन में (रातिः अस्तु) = तेरी दान की वृत्ति बनी रहे। सुन्दर जीवन यही है कि हम काम आदि शत्रुओं को पराभूत करें और दान की वृत्तिवाले हों। [२] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! तू (दक्षिणेन) = दक्षिण मार्ग से, नकि वाम [उलटे] मार्ग से (वसूनि आभर) = धनों को प्राप्त करनेवाला बन । सदा सुपथ से धन को कमानेवाला हो। और इस प्रकार (रेवतीनां सिन्धूनाम्) = धन से बनी हुई नदियों का (पति: असि) = तू स्वामी होता है। 'रेवतीनां सिन्धूनां' इन शब्दों में दान-धाराओं का भी संकेत प्रतीत होता है, अर्थात् तू खूब दान देनेवाला बनता है ।
भावार्थ - भावार्थ-हम काम आदि शत्रुओं का पराभव करें, दान की वृत्तिवाले हों, सुपथ से धन कमाएँ और खूब ही देनेवाले बनें।
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