ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 2/ मन्त्र 1
पि॒प्री॒हि दे॒वाँ उ॑श॒तो य॑विष्ठ वि॒द्वाँ ऋ॒तूँॠ॑तुपते यजे॒ह । ये दैव्या॑ ऋ॒त्विज॒स्तेभि॑रग्ने॒ त्वं होतॄ॑णाम॒स्याय॑जिष्ठः ॥
स्वर सहित पद पाठपि॒प्री॒हि । दे॒वान् । उ॒श॒तः । य॒वि॒ष्ठ॒ । वि॒द्वान् । ऋ॒तून् । ऋ॒तु॒ऽप॒ते॒ । य॒ज॒ । इ॒ह । ये । दैव्याः॑ । ऋ॒त्विजः॑ । तेभिः॑ । अ॒ग्ने॒ । त्वम् । होतॄ॑णाम् । अ॒सि॒ । आऽय॑जिष्ठः ॥
स्वर रहित मन्त्र
पिप्रीहि देवाँ उशतो यविष्ठ विद्वाँ ऋतूँॠतुपते यजेह । ये दैव्या ऋत्विजस्तेभिरग्ने त्वं होतॄणामस्यायजिष्ठः ॥
स्वर रहित पद पाठपिप्रीहि । देवान् । उशतः । यविष्ठ । विद्वान् । ऋतून् । ऋतुऽपते । यज । इह । ये । दैव्याः । ऋत्विजः । तेभिः । अग्ने । त्वम् । होतॄणाम् । असि । आऽयजिष्ठः ॥ १०.२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
विषय - आयजिष्ठ
पदार्थ -
हे (यविष्ठ) = बुराई को अपने से दूर करनेवाले तथा अच्छाई को अपने से संयुक्त करनेवाले जीव ! (उशतः) = तेरा हित चाहनेवाले (देवान्) = माता, पिता, आचार्य, अतिथि आदि देवों को (पिप्रीहि) = तू अपने उत्तम कर्मों से प्रीणित करनेवाला बन । उनके कहने में चलता हुआ तू उनकी प्रसन्नता का कारण बन । हृदयस्थ उस महान् देव प्रभु की प्रेरणा को सुन तथा तदनुसार जीवन को चला। (विद्वान्) = इनके सम्पर्क में ज्ञानी बनकर (ऋतुपते) = हे ऋतुओं के पति अर्थात् समयानुसार नियमितता से कार्य करनेवाले जीव ! तू (इह) = इस मानव जीवन में (ऋतून् यज) = ऋतुओं की अनुकूलता के लिये यज्ञशील हो। उत्तम कर्मों से माता-पिता आदि को प्रीणित कर, ज्ञानी बन और यज्ञशील हो । अब (ये) = जो (दैव्याः) = देव की ओर चलनेवाले, प्रभु प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर होनेवाले (ऋत्विजः) = ऋतु- ऋतु में यज्ञशील पुरुष हैं (तेभिः) = उनके सम्पर्क में रहता हुआ (त्वम्) = तू (अग्ने) = हे प्रगतिशील जीव ! (होतॄणाम्) = होताओं में, दानपूर्वक अदन करने वालों में (आयजिष्ठः) = सब प्रकार से सर्वाधिक यज्ञशील हो । वस्तुतः हम जिन भी लोगों के सम्पर्क में आते हैं उन जैसे ही जीवन वाले बन जाते हैं। अच्छों के सम्पर्क में अच्छे और बुरों के सम्पर्क में बुरे । यहाँ देव ऋत्विज् लोगों के सम्पर्क में आकर हम भी सर्वाधिक यज्ञशील बनते हैं।
भावार्थ - भावार्थ- हम बुराई को अपने से दूर करके तथा अच्छाई को अपने साथ संगत करके माता, पिता, आचार्य आदि देवों को प्रसन्न करें। हमारे सब कार्य समय पर हों। उत्तम लोगों के सम्पर्क में आकर हम उत्तम बनें।
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