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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 2/ मन्त्र 7
    ऋषिः - त्रितः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यं त्वा॒ द्यावा॑पृथि॒वी यं त्वाप॒स्त्वष्टा॒ यं त्वा॑ सु॒जनि॑मा ज॒जान॑ । पन्था॒मनु॑ प्रवि॒द्वान्पि॑तृ॒याणं॑ द्यु॒मद॑ग्ने समिधा॒नो वि भा॑हि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । त्वा॒ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । यम् । त्वा॒ । आपः॑ । त्वष्टा॑ । यम् । त्वा॒ । सु॒ऽजमि॑मा । ज॒जान॑ । पन्था॑म् । अनु॑ । प्र॒ऽवि॒द्वान् । पि॒तृ॒ऽयान॑म् । द्यु॒ऽमत् । अ॒ग्ने॒ । स॒म्ऽइ॒धा॒नः । वि । भा॒हि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं त्वा द्यावापृथिवी यं त्वापस्त्वष्टा यं त्वा सुजनिमा जजान । पन्थामनु प्रविद्वान्पितृयाणं द्युमदग्ने समिधानो वि भाहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । त्वा । द्यावापृथिवी इति । यम् । त्वा । आपः । त्वष्टा । यम् । त्वा । सुऽजमिमा । जजान । पन्थाम् । अनु । प्रऽविद्वान् । पितृऽयानम् । द्युऽमत् । अग्ने । सम्ऽइधानः । वि । भाहि ॥ १०.२.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 7
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    गतमन्त्र के अनुसार सात्त्विक भोजन करने पर (यं त्वा) = जिस तुझको (द्यावापृथिवी) = ये द्युलोक तथा पृथिवीलोक तथा (यं त्वा) = जिस तुझको (आपः) = व्यापक अन्तरिक्षलोक [आप व्याप्तौ] (जजान) = विकसित शक्ति वाला करते हैं । द्युलोक का अंश शरीर में मस्तिष्क है । द्युलोक की अनुकूलता के होने पर मस्तिष्क का विकास ठीक से होता है । 'पृथिवी शरीरम्' इस वाक्य के अनुसार पृथिवी अध्यात्म में शरीर है। पृथिवी की अनुकूलता से शरीर ठीक रहता है। जैसे द्युलोक तारों व सूर्य से चमकता है, इसी प्रकार हमारा मस्तिष्क भी विज्ञान के नक्षत्रों व ज्ञान के सूर्य से चमकना चाहिए। जिस प्रकार पृथिवी दृढ़ है, उसी प्रकार हमारा शरीर भी दृढ़ होना चाहिए। 'अश्माभवतु नस्तनूः ' हमारा शरीर पत्थर के समान मजबूत हो। इसके बाद हमारा हृदयान्तरिक्ष कुछ व्यापकता-उदारता को लिये हुए होना चाहिए। हृदय जितना विशाल होगा उतना ही ठीक होगा । विशालता ही हृदय को पवित्र करती है। इसी दृष्टिकोण से यहाँ 'आप' शब्द का प्रयोग है, व्यापक । (यं त्वा) = जिस तुझको (सुजनिमा) = उत्तम विकास के कारणभूत (त्वष्टा) = उस महान् देवशिल्पी, सब दिव्यगुणों का निर्माण करनेवाले प्रभु ने (जजान) = प्रादुर्भूत शक्तियों वाला बनाया है। प्रभु के स्मरण से मनुष्य की शक्तियों का विकास ही होता चलता है, उसके जीवन में न्यूनता नहीं आती। मनुष्य प्रभु को भूलता है और विषयासक्त होकर क्षीणशक्ति होता जाता है। वह तू जिसका कि विकास त्रिलोकी ने व त्रिलोकी के नाथ प्रभु ने किया है, (द्युमत्) = ज्योतिर्मय (पितृयाणं पन्थाम्) = पितृयाण मार्ग को प्रविद्वान् खूब अच्छी प्रकार जानता हुआ अग्ने हे प्रगतिशील जीव ! (समिधानः) = उस प्रभु की ज्योति को अपने अन्दर समिद्ध करता हुआ (अनुविभाहि) = उस प्रभु के अनुसार दीप्ति को प्राप्त करनेवाला है। औरों की रक्षा का मार्ग ही पितृयाण मार्ग है। पिता पुत्रों का रक्षण करता है, ज्ञान देनेवाले आचार्यरूप पितर विद्यार्थियों का रक्षण करते हैं, राज्य शासन के संचालक राजरूप पितर प्रजारूप पुत्रों का रक्षण करते हैं। इन सब का मार्ग 'पितृयाण' मार्ग है। यह ज्योतिर्मय होना चाहिए [द्युमत्] । ज्ञान की कमी के कारण ही हम रक्षण ठीक से नहीं करने पाते। अज्ञानवश रक्षण करते हुए हानि कर बैठते हैं। साथ ही इस मार्ग में चलते हुए प्रभु को अपने हृदय में समिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं तो जहाँ इस मार्ग पर उत्तमता से फल पाते हैं वहाँ प्रभु की दीप्ति से हमारा जीवन भी उसी प्रकार दीप्त हो उठता है जैसे कि लोहशलाका अग्नि में पड़कर अग्नि के समान चमक उठती है ।

    भावार्थ - भावार्थ- हमारा शरीर द्यावापृथिवी व अन्तरिक्ष की अनुकूलता से व प्रभु कृपा से पूर्ण स्वस्थ होकर चमकता है हमें स्वस्थ शरीर होकर पितृयाण मार्ग से चलना चाहिये तथा प्रभु ज्योति को समिद्ध करके प्रभु के समान चमकने का प्रयत्न करना चाहिए। इस द्वितीय सूक्त का प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है कि हम 'आयजिक' बनें। अधिक से अधिक यज्ञशील, [१] मेधावी बनकर सदा धन को देनेवाले हों, [२] देवताओं के मार्ग पर चलें, यज्ञशील हों, होता बनें, [३] देवताओं के व्रत को तोड़ें नहीं, [४] परिपक्व बुद्धि वाले व अदीन सत्त्व वाले होकर सदा उत्तमोत्तम यज्ञों को करने का विचार करें, [५] हम सात्त्विक अन्नों के सेवन से सात्त्विक वृत्ति वाले हैं तथा [६] ज्योतिर्मय पितृयाण मार्ग का आक्रमण करते हुए दीप्त जीवन वाले बनें, [७] 'खूब ही चमकें' यह भावना तृतीय सूक्त के प्रारम्भ में देते हैं-

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