ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 21/ मन्त्र 2
ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - पादनिचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
त्वामु॒ ते स्वा॒भुव॑: शु॒म्भन्त्यश्व॑राधसः । वेति॒ त्वामु॑प॒सेच॑नी॒ वि वो॒ मद॒ ऋजी॑तिरग्न॒ आहु॑ति॒र्विव॑क्षसे ॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । ऊँ॒ इति॑ । ते । सु॒ऽआ॒भुवः॑ । शु॒म्भन्ति॑ । अश्व॑ऽराधसः । वेति॑ । त्वाम् । उ॒प॒ऽसेच॑नी । वि । वः॒ । मदे॑ । ऋजी॑तिः । अ॒ग्ने॒ । आऽहु॑तिः । विव॑क्षसे ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामु ते स्वाभुव: शुम्भन्त्यश्वराधसः । वेति त्वामुपसेचनी वि वो मद ऋजीतिरग्न आहुतिर्विवक्षसे ॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम् । ऊँ इति । ते । सुऽआभुवः । शुम्भन्ति । अश्वऽराधसः । वेति । त्वाम् । उपऽसेचनी । वि । वः । मदे । ऋजीतिः । अग्ने । आऽहुतिः । विवक्षसे ॥ १०.२१.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 21; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
विषय - उपसेचनी - ऋजीति - आहुति
पदार्थ -
[१] हे प्रभो ! (त्वाम्) = आपको (उ) = निश्चय से (ते) = वे (स्वाभुवः) = [स्यं आभवन्ति] सब प्रकार स्वाश्रित लोग, (अश्वराधसः) = व्याप्त धनों वाले लोग (शुम्भन्ति) = अपने जीवन में सुशोभित करते हैं। प्रभु को प्राप्त लोगों के दो चिह्न हैं एक तो यह कि वे पराश्रित नहीं होते, अपने पाँव पर खड़े होते हैं, और दूसरा यह कि वे अर्जित धनों का विनियोग केवल अपने लिये नहीं करते। लोकहित के लिये धनों का विनियोग करते हुए वे 'व्याप्त धनों वाले' कहलाते हैं । [२] हे प्रभो ! (त्वाम्) = आपको (उपसेचनी) = लोकों को सुखों से सिक्त करने की क्रिया (वेति) = प्राप्त कराती है। अर्थात् यदि एक व्यक्ति दुःखितों पर करुणार्द्रचित्त होकर उनके दुःखों को दूर करता है और उनको सुखों की वर्षा से सिक्त करता है तो यह व्यक्ति आपको प्राप्त होता है। [३] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (ऋजीतिः) = ऋजुता व सरलता आपको प्राप्त कराती है। सरलता प्रभु प्राप्ति का साधन बनती है। इसी प्रकार (आहुतिः) = त्याग व दान आपको प्राप्त कराता है । एवं प्रभु प्राप्ति के तीन साधन हैं - [क] लोगों को, दुःख दूर करके, सुखसिक्त करना, [ख] सरलता व [ग] त्याग । [४] यह प्रभु प्राप्ति (वः) = तुम सबके (मदे) = मद के निमित्त होती है, अर्थात् एक अद्भुत मस्ती वाले जीवन को जन्म देती है और (विवक्षसे) = विशिष्ट उन्नति के लिये होती है।
भावार्थ - भावार्थ- 'प्रभु-भक्त' अपराश्रित व व्याप्तधन होता है। प्रभु प्राप्ति के लिये करुणार्द्रता, ऋजुता व त्याग आवश्यक हैं। प्रभु प्राप्ति से आनन्द मिलता है और सर्वतोमुखी उन्नति होती है।
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