ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 21/ मन्त्र 3
ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
त्वे ध॒र्माण॑ आसते जु॒हूभि॑: सिञ्च॒तीरि॑व । कृ॒ष्णा रू॒पाण्यर्जु॑ना॒ वि वो॒ मदे॒ विश्वा॒ अधि॒ श्रियो॑ धिषे॒ विव॑क्षसे ॥
स्वर सहित पद पाठत्वे इति॑ । ध॒र्माणः॑ । आ॒स॒ते॒ । जु॒हूभिः॑ । सि॒ञ्च॒तीःऽइ॑व । कृ॒ष्णा । रू॒पाणि॑ । अर्जु॑ना । वि । वः॒ । मदे॑ । विश्वाः॑ । अधि॑ । श्रियः॑ । धि॒षे॒ । विव॑क्षसे ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वे धर्माण आसते जुहूभि: सिञ्चतीरिव । कृष्णा रूपाण्यर्जुना वि वो मदे विश्वा अधि श्रियो धिषे विवक्षसे ॥
स्वर रहित पद पाठत्वे इति । धर्माणः । आसते । जुहूभिः । सिञ्चतीःऽइव । कृष्णा । रूपाणि । अर्जुना । वि । वः । मदे । विश्वाः । अधि । श्रियः । धिषे । विवक्षसे ॥ १०.२१.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 21; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
विषय - कृष्ण व अर्जुन
पदार्थ -
[१] हे प्रभो ! (त्वे) = आप में (धर्माण:) = ' धर्मो धारयते प्रजाः ' धारणात्मक कर्मों को करनेवाले लोग (आसते) = आसीत होते हैं। ये लोग (जुहूभिः) = चम्मचों से (सिञ्चतीः इव) = सदा अग्नि का सेचन-सा कर रहे होते हैं। जैसे चम्मच से अग्नि में घृत का सेचन होता है, इसी प्रकार ये लोग [हु- दान] स्वार्जित धनों के त्याग व दान से प्रजा पर सुखों का वर्षण करते हैं, प्रजाओं को सुख से सींचते से हैं । [२] इन लोगों के (रूपाणि) = रूप (कृष्णा) = आकर्षकत्व (अर्जुना) = श्वेत व शुद्ध होते हैं। [३] हे प्रभु को प्राप्त करनेवाले जीव ! तू (वः मदे) = अपने आनन्द में (विश्वाः श्रियः) = सब शोभाओं को (अधिधिषे) = आधिक्येन धारण करनेवाला होता है और (विवक्षसे) = विशिष्ट उन्नति के लिये होता है। प्रभु प्राप्ति का परिणाम प्रभु-भक्त के जीवन में यह होता है कि वह सब शुभ- गुणों का धारण करनेवाला होता है और सब प्रकार की उन्नति उसके जीवन को सुन्दर बना देती है ।
भावार्थ - भावार्थ - प्रभु के सच्चे उपासक वे ही हैं जो लोकधारण में तत्पर रहते हैं ।
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