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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 24/ मन्त्र 4
    ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः देवता - अश्विनौ छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यु॒वं श॑क्रा माया॒विना॑ समी॒ची निर॑मन्थतम् । वि॒म॒देन॒ यदी॑ळि॒ता नास॑त्या नि॒रम॑न्थतम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वम् । श॒क्रा॒ । मा॒या॒ऽविना॑ । स॒मी॒ची इति॑ स॒म्ऽई॒ची । निः । अ॒म॒न्थ॒त॒म् । वि॒ऽम॒देन॑ । यत् । ई॒ळि॒ता । नास॑त्या । निः॒ऽअम॑न्थतम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवं शक्रा मायाविना समीची निरमन्थतम् । विमदेन यदीळिता नासत्या निरमन्थतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवम् । शक्रा । मायाऽविना । समीची इति सम्ऽईची । निः । अमन्थतम् । विऽमदेन । यत् । ईळिता । नासत्या । निःऽअमन्थतम् ॥ १०.२४.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 24; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    [१] प्राणापान 'अश्विनौ' कहलाते हैं क्योंकि 'न श्वः' ये आज हैं तो कल नहीं है, अस्थिरता के कारण इन्हें ' अश्विनौ' कहा गया है। अथवा 'अशू व्याप्तौ' ये कर्मों में व्याप्त होनेवाले हैं। कर्मों में व्याप्ति के कारण ये 'अश्विनौ' हैं। प्राणापान, शक्ति सम्पन्न पुरुष ही आलस्य को परे फेंककर कार्यों में व्यावृत होता है। हे अश्विनौ ! (युवम्) = आप दोनों (शक्रा) = शक्ति सम्पन्न हो । शरीर में सारी शक्ति के कोश ये प्राणापान ही हैं। (मायाविना) = आप (प्रज्ञा) = सम्पन्न हो । प्राणसाधना से ही बुद्धि की सूक्ष्मता सिद्ध होती है। (समीची) = [सम्+अञ्च् ] सम्यक् गति वाले आप हो । प्राणसाधना से सब मलों के दूर होने से कर्मों में भी पवित्रता आ जाती है। एवं प्राणसाधना के तीन लाभ यहाँ संकेतित हैं— [क] शक्ति की वृद्धि, [ख] प्रज्ञा-प्रसाद, [ग] कर्मों का सम्यक्त्व। [२] ऐसे प्राणापानो! आप (निरमन्थतम्) = जैसे दो अरणियों के मन्थन से अग्नि प्रकट होती हैं, इसी प्रकार आप उस प्रभुरूप अग्नि का हमारे हृदयों में प्रकाश करो। [३] (विमदेन) = 'शक्ति प्रज्ञा व उत्तम कर्मों' को सिद्ध करके भी मद - [गर्व] शून्य स्थिति वाले ऋषि से (यद्) = जब (ईडिता) = आप उपासित होते हो तो हे (ना सत्या) = [नासा+त्य] नासिका में निवास करनेवाले [न+असत्या] सब असत्यों को नष्ट करके सत्य को दीप्त करनेवाले प्राणापानो! आप (निरमन्थतम्) = मेरे में प्रभु रूप अग्नि को अवश्य उद्बुद्ध करो। एवं प्राणसाधना का चौथा लाभ यह है कि असत्य को समाप्त करके ये सत्य प्रभु का दर्शन करानेवाले होते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- हम प्राणसाधना के द्वारा अपने में 'शक्ति- प्रज्ञा-कर्मपवित्रता' का सम्पादन करके प्रभु-दर्शन करनेवाले हों ।

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