ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 24/ मन्त्र 3
ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - शङ्कुमतीपङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
यस्पति॒र्वार्या॑णा॒मसि॑ र॒ध्रस्य॑ चोदि॒ता । इन्द्र॑ स्तोतॄ॒णाम॑वि॒ता वि वो॒ मदे॑ द्वि॒षो न॑: पा॒ह्यंह॑सो॒ विव॑क्षसे ॥
स्वर सहित पद पाठयः । पति॑म् । वार्या॑णाम् । असि॑ । र॒ध्रस्य॑ । चो॒दि॒ता । इन्द्र॑ । स्तो॒तॄ॒णाम् । अ॒वि॒ता । वि । वः॒ । मदे॑ । द्वि॒षः । नः॒ । पा॒हि॒ । अंह॑सः । विव॑क्षसे ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्पतिर्वार्याणामसि रध्रस्य चोदिता । इन्द्र स्तोतॄणामविता वि वो मदे द्विषो न: पाह्यंहसो विवक्षसे ॥
स्वर रहित पद पाठयः । पतिम् । वार्याणाम् । असि । रध्रस्य । चोदिता । इन्द्र । स्तोतॄणाम् । अविता । वि । वः । मदे । द्विषः । नः । पाहि । अंहसः । विवक्षसे ॥ १०.२४.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 24; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
विषय - द्वेष व पाप से परे
पदार्थ -
[१] हे प्रभो ! (यः) = जो आप (वार्याणाम्) = सब वरणीय वस्तुओं के (पतिः असि) = स्वामी हैं, (रध्रस्य) = आराधक व स्तोता को (चोदिता) = उत्तम कर्मों की प्रेरणा देनेवाले हैं, हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो! आप ही (स्तोतॄणाम्) = अपने स्तोताओं के (अविता) = अपने दिव्यांश के पूरण के द्वारा [promote] उन्नत करनेवाले हैं। प्रभु अपने स्तोताओं को [क] वरणीय धन प्राप्त कराते हैं, [ख] उन धनों के उचित विनियोग की प्रेरणा देते हैं, [ग] और इस प्रकार उन्हें उन्नत करते हैं । [२] हे प्रभो! (वः) = आप के (विमदे) = प्राप्ति के आनन्द के निमित्त (नः) = हमें द्(विषः) = द्वेषों से तथा (अंहसः) = पापों से (पाहि) = बचाइये । द्वेष व पाप से ऊपर उठकर ही तो हम आप को प्राप्त कर सकते हैं । (विवक्षसे) = आप ऐसी कृपा कीजिये कि हम विशिष्ट उन्नति वाले हो सकें। आपकी प्रेरणा को सुनकर निर्देषता व निष्पापता के मार्ग पर चलेंगे तो हम सब प्रकार से उन्नति क्यों न करेंगे ?
भावार्थ - भावार्थ - प्रभु कृपा से हमें वरणीय धन प्राप्त हो। हम प्रभु की आराधना करें जिससे हमें प्रभु प्रेरणा प्राप्त हो। हम द्वेष व पाप से ऊपर उठकर प्रभु रक्षण के अधिकारी बनें। यह उन्नति का मार्ग ही हमारा मार्ग हो ।
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