ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 24/ मन्त्र 2
ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराडार्चीपङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
त्वां य॒ज्ञेभि॑रु॒क्थैरुप॑ ह॒व्येभि॑रीमहे । शची॑पते शचीनां॒ वि वो॒ मदे॒ श्रेष्ठं॑ नो धेहि॒ वार्यं॒ विव॑क्षसे ॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । य॒ज्ञेभिः॑ । उ॒क्थैः । उप॑ । ह॒व्येभिः॑ । ई॒म॒हे॒ । शची॑ऽपते । श॒ची॒न॒म् । वि । वः॒ । मदे॑ । श्रेष्ठ॑म् । नः॒ । धे॒हि॒ । वार्य॑म् । विव॑क्षसे ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वां यज्ञेभिरुक्थैरुप हव्येभिरीमहे । शचीपते शचीनां वि वो मदे श्रेष्ठं नो धेहि वार्यं विवक्षसे ॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम् । यज्ञेभिः । उक्थैः । उप । हव्येभिः । ईमहे । शचीऽपते । शचीनम् । वि । वः । मदे । श्रेष्ठम् । नः । धेहि । वार्यम् । विवक्षसे ॥ १०.२४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 24; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
विषय - 'श्रेष्ठ वार्य' धन
पदार्थ -
[१] गत मन्त्र में दी गई प्रभु प्रेरणा को सुनकर जीव प्रभु से कहता है कि हे प्रभो ! (त्वाम्) = आप को (यज्ञेभिः) = देव पूजनों से अर्थात् 'मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव, अतिथि देवो भव' इस उपनिषद् वाक्य के अनुसार माता, पिता, आचार्य व अतिथियों के आदर से ज्ञान प्राप्ति के द्वारा तथा (उक्थैः) = स्तुति-वचनों से स्तवन के द्वारा और (हव्येभिः) = [ हु दानादनयोः] दानपूर्वक यज्ञशेष के सेवन के द्वारा (उप ईमहे) = समीप प्राप्त होकर आराधना करते हैं । प्रभु का आराधन देव-पूजन, स्तवन व हव्य के सेवन से होता है। ये तीन ही बातें ज्ञानकाण्ड, उपासनाकाण्ड व कर्मकाण्ड कहलाती हैं। [२] (शचीनां शचीपते) = प्रज्ञाओं [नि० ३ । ९] व शक्तियों के पति प्रभो ! (वः) = आपकी प्राप्ति के (विमदे) = विशिष्ट आनन्द के निमित्त (नः) = हमारे लिये (श्रेष्ठं वार्यं) = उत्तम वरणीय धन को (धेहि) = धारण कीजिये जिससे (विवक्षसे) = हम विशिष्ट उन्नति को कर सकें। श्रेष्ठ वरणीय धन वही है जो हमारी उन्नतियों का कारण बनता है, हमें प्रज्ञा व शक्ति सम्पन्न बनाकर प्रभु के समीप ले चलनेवाला होता है।
भावार्थ - भावार्थ - हम 'यज्ञों, उक्थों व हव्यों' से प्रभु का आराधन करें। शक्ति व प्रज्ञा को प्राप्त करें तथा उस श्रेष्ठ वरणीय धन को प्राप्त करें जो कि हमारी उन्नति व हर्ष का कारण बने ।
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