ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 24/ मन्त्र 1
ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - आस्तारपङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
इन्द्र॒ सोम॑मि॒मं पि॑ब॒ मधु॑मन्तं च॒मू सु॒तम् । अ॒स्मे र॒यिं नि धा॑रय॒ वि वो॒ मदे॑ सह॒स्रिणं॑ पुरूवसो॒ विव॑क्षसे ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । सोम॑म् । इ॒मम् । पि॒ब॒ । मधु॑ऽमन्तम् । च॒मू इति॑ । सु॒तम् । अ॒स्मे इति॑ । र॒यिम् । नि । धा॒र॒य॒ । वि । वः॒ । मदे॑ । स॒ह॒स्रिण॑म् । पु॒रु॒व॒सो॒ इति॑ पुरुऽवसो । विव॑क्षसे ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र सोममिमं पिब मधुमन्तं चमू सुतम् । अस्मे रयिं नि धारय वि वो मदे सहस्रिणं पुरूवसो विवक्षसे ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । सोमम् । इमम् । पिब । मधुऽमन्तम् । चमू इति । सुतम् । अस्मे इति । रयिम् । नि । धारय । वि । वः । मदे । सहस्रिणम् । पुरुवसो इति पुरुऽवसो । विवक्षसे ॥ १०.२४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 24; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
विषय - मधुमन्तं चमूसुतम्
पदार्थ -
[१] प्रभु अपने मित्र जीव को प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि (इन्द्र) = हे जितेन्द्रिय पुरुष ! (इमं सोमं पिब) = इस सोम को तू शरीर में ही पीने का प्रयत्न कर । आहार से रस रुधिरादि क्रम से उत्पन्न हुआ हुआ यह (सोम) = वीर्य तेरे शरीर में ही व्याप्त हो जाए। (मधुमन्तम्) = यह अत्यन्त माधुर्य वाला है। शरीर में नीरोगता को, मन में निर्देषता को तथा बुद्धि में तीव्रता को जन्म देकर यह हमारे जीवनों को अतिशयेन मधुर बना देता है। (चमूसुतम्) = [चम्वोः द्यावापृथिव्योः = मस्तिष्क व शरीर ] यह सोम चमुओं, द्यावापृथिवियों, मस्तिष्क व शरीर के निमित्त ही पैदा किया गया है। शरीर को यह सब रोगों से बचाता है, और मस्तिष्क की तीव्रता को सिद्ध करता है । [२] प्रभु कहते हैं (व:) = तुम्हारे (विमदे) = विशिष्ट आनन्द के निमित्त (अस्मे) = हमारे (सहस्रिणम्) = हजारों की संख्या वाले अथवा प्रसन्नता को जन्म देनेवाले [स+हस्] (रयिम्) = धन को (निधारय) = निश्चय से धारण कर अथवा नम्रता से धारण कर । तुझे यह धन तो प्राप्त हो, परन्तु यह धन तुझे गर्वित न कर दे । [३] (पुरूवसो) = हे पालन व पूरण के लिये वसु - धन को प्राप्त करनेवाले जीव ! तू (विवक्षसे) = विशिष्ट उन्नति के लिये हो [ वक्ष To grow ] धन को प्राप्त करके तू धन का विनियोग इस प्रकार से कर कि यह धन जहाँ तेरे शरीर का पालन करे, उसे रोगाक्रान्त न होने दे, वहाँ तेरे मन का यह पूरण करनेवाला हो, तेरे मन में किसी प्रकार की ईर्ष्या-द्वेष आदि की अवाञ्छनीय भावनाएँ न उत्पन्न हो जाएँ।
भावार्थ - भावार्थ - हम वीर्य को शरीर में ही व्याप्त करें, यह हमारे जीवन को मधुर बनायेगा । हम धन को भी धारण करें, जो हमारे शरीर के पालन व पूरण का साधन बने ।
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