ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 25/ मन्त्र 2
ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः
देवता - सोमः
छन्दः - आस्तारपङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
हृ॒दि॒स्पृश॑स्त आसते॒ विश्वे॑षु सोम॒ धाम॑सु । अधा॒ कामा॑ इ॒मे मम॒ वि वो॒ मदे॒ वि ति॑ष्ठन्ते वसू॒यवो॒ विव॑क्षसे ॥
स्वर सहित पद पाठहृ॒दि॒ऽस्पृशः॑ । ते॒ । आ॒स॒ते॒ । विश्वे॑षु । सो॒म॒ । धाम॑ऽसु । अध॑ । कामाः॑ । इ॒मे । मम॑ । वि । वः॒ । मदे॑ । वि । ति॒ष्ठ॒न्ते॒ । व॒सु॒ऽयवः॑ । विव॑क्षसे ॥
स्वर रहित मन्त्र
हृदिस्पृशस्त आसते विश्वेषु सोम धामसु । अधा कामा इमे मम वि वो मदे वि तिष्ठन्ते वसूयवो विवक्षसे ॥
स्वर रहित पद पाठहृदिऽस्पृशः । ते । आसते । विश्वेषु । सोम । धामऽसु । अध । कामाः । इमे । मम । वि । वः । मदे । वि । तिष्ठन्ते । वसुऽयवः । विवक्षसे ॥ १०.२५.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 25; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
विषय - पर-वैराग्य
पदार्थ -
[१] हे (सोम) = शान्त प्रभो ! गत मन्त्र के अनुसार आपके मित्र बननेवाले तथा सोम का रक्षण करनेवाले लोग (ते) = आपके (हृदिस्पृशः) = हृदय को स्पर्श करनेवाले होते हैं, अर्थात् आपको अत्यन्त प्रिय होते हैं। (ते) = वे आपके (विश्वेषु धामसु) = सब तेजों में (आसते) = स्थित होते हैं । आपके तेज के अंश से तेजस्वी बनते हैं, आपकी दिव्यता का उनमें अवतरण होता है । [२] इस दिव्यता के अवतरण के होने पर (अधा) = अब (वः) = आपकी प्राप्ति के (विमदे) = विशिष्ट आनन्द में (मम) = मेरे (इमे) = ये (वसूयवः) = धन प्राप्ति के साथ सम्बद्ध (कामाः) = काम (वितिष्ठन्ते) = रुक जाते हैं । 'तत्परं पुरुख्यातेर्गुण वैतृष्णयम्' इस योगसूत्र के अनुसार प्रभु का आभास होने पर संसार की तृष्णा ही नहीं रह जाती और यही 'पर-वैराग्य' है। प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'विमद' भी प्रभु की तेजस्विता का अनुभव करने पर इन सांसारिक कामनाओं से ऊपर उठ जाता है। [३] इनसे ऊपर उठकर ही वह विवक्षसे विशिष्ट उन्नति के लिए समर्थ होता है। कामासक्ति उत्थान की प्रतिबन्धिका होती है, निष्कामता ही सब उत्थानों का मूल है।
भावार्थ - भावार्थ- सोम का रक्षण करनेवाला ही सच्चा प्रभु का प्रिय बनता है, प्रभु के तेज से तेजस्वी होता है और इसको सांसारिक वासनाएँ नहीं तृप्त करती ।
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