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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 25/ मन्त्र 1
    ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः देवता - सोमः छन्दः - आस्तारपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    भ॒द्रं नो॒ अपि॑ वातय॒ मनो॒ दक्ष॑मु॒त क्रतु॑म् । अधा॑ ते स॒ख्ये अन्ध॑सो॒ वि वो॒ मदे॒ रण॒न्गावो॒ न यव॑से॒ विव॑क्षसे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भ॒द्रम् । नः॒ । अपि॑ । वा॒त॒य॒ । मनः॑ । दक्ष॑म् । उ॒त । क्रतु॑म् । अध॑ । ते॒ । स॒ख्ये । अन्ध॑सः । वि । वः॒ । मदे॑ । रण॑न् । गावः॑ । न । यव॑से । विव॑क्षसे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भद्रं नो अपि वातय मनो दक्षमुत क्रतुम् । अधा ते सख्ये अन्धसो वि वो मदे रणन्गावो न यवसे विवक्षसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भद्रम् । नः । अपि । वातय । मनः । दक्षम् । उत । क्रतुम् । अध । ते । सख्ये । अन्धसः । वि । वः । मदे । रणन् । गावः । न । यवसे । विवक्षसे ॥ १०.२५.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 25; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] हे प्रभो! (नः) = हमारे (मनः) = मन को (भद्रम्) = कल्याण की (अपि) = ओर (वातय) = प्रेरित कीजिये। हमारा मन सदा शुभ कर्मों में ही प्रवृत्त हो। दुरितों से दूर, भद्र के समीप हम सदा रहें । [२] (दक्षम्) = हमारे मन को दक्ष उन्नति की ओर आप प्रेरित करिये। हमारा यह मन कभी अवनति की ओर न जाये । अथवा कार्यों को हम दक्षता से करनेवाले हों, हमारे कार्यों में अनाड़ीपन न टपके । कर्मों को कुशलता से करना ही तो योग है। हम इस योग को सिद्ध कर सकें। [३] (उत) = और (क्रतुम्) = हमारे मनों को आप यज्ञ की ओर प्रेरित करिये। 'यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म ' यज्ञ ही श्रेष्ठतम कर्म है। हमारा मन सदा इन उत्तम यज्ञात्मक कर्मों में प्रवृत्त रहे। एवं 'भद्र, दक्ष व क्रतु' ये हमारे ध्येय बन जायें। [४] (अधा) = अब मन की इस साधना के बाद (ते सख्ये) = आपकी मित्रता में तथा (अन्धसः) = आध्यानीय सोम [वीर्य] के (वि-मदे) = विशिष्ट मद [= हर्ष] में (वः रणन्) = हमारी इन्द्रियाँ आपके ही नामों का उच्चारण करें। इन इन्द्रियों का आपके स्तवन की ओर इस प्रकार रुझान हो कि (न गावः यवसे) = जिस प्रकार गौवें चारे की ओर झुकाव वाली होती हैं। गौवों का अपने हरे-भरे चारे की ओर झुकाव स्वाभाविक है, इसी प्रकार हमारी इन्द्रियाँ स्वभावतः आप की ओर झुकें। [५] यह सब हम इसलिये चाहते हैं कि (विवक्षसे) = विशिष्ट उन्नति की साधना कर सकें । उन्नति का मार्ग यही है कि हम प्रकृति- प्रवण न होकर आप की ओर झुकाव वाले हों। यह आपके नामों का उच्चारण हमारे सामने हमारे जीवन के लक्ष्य को स्थापित करेगा और हम निरन्तर उन्नतिपथ पर आगे बढ़नेवाले होंगे ।

    भावार्थ - भावार्थ - हमारा मन 'भद्रता, दक्षता व क्रतु' की ओर प्रेरित हो। हम प्रभु के मित्र हों, सोम का रक्षण करें और हमारी इन्द्रियाँ प्रभु नामों का उच्चारण करें जिससे हम उन्नत ही उन्नत होते चलें।

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