ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 26/ मन्त्र 1
ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः
देवता - पूषा
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
प्र ह्यच्छा॑ मनी॒षा स्पा॒र्हा यन्ति॑ नि॒युत॑: । प्र द॒स्रा नि॒युद्र॑थः पू॒षा अ॑विष्टु॒ माहि॑नः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । हि । अच्छ॑ । म॒नी॒षाः । स्पा॒र्हाः । यन्ति॑ । नि॒ऽयुतः॑ । प्र । द॒स्रा । नि॒युत्ऽर॑थः । पू॒षा । अ॒वि॒ष्टु॒ । माहि॑नः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र ह्यच्छा मनीषा स्पार्हा यन्ति नियुत: । प्र दस्रा नियुद्रथः पूषा अविष्टु माहिनः ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । हि । अच्छ । मनीषाः । स्पार्हाः । यन्ति । निऽयुतः । प्र । दस्रा । नियुत्ऽरथः । पूषा । अविष्टु । माहिनः ॥ १०.२६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 26; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
विषय - मनीषा - नियुत्-दस्त्रा
पदार्थ -
[१] प्रस्तुत सूक्त में परमात्मा को 'पूषा' नाम से स्मरण किया गया है। उस पूषा के अनुग्रह से हि - निश्चयपूर्वक (स्पार्हा:) = स्पृहणीय, चाहने योग्य (मनीषा:) = बुद्धियाँ (अच्छा यन्ति) = हमारी ओर प्राप्त होती हैं, अर्थात् वे बुद्धियाँ जो निर्माणात्मक-लोकहितात्मक कार्यों को जन्म देती हैं, हमें प्राप्त हों। ऐसी ही बुद्धियाँ स्पृहणीय हैं। इन बुद्धियों के साथ (नियुतः) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्व हमें प्राप्त होते हैं । उत्तम बुद्धियों के साथ उत्तम इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करके हम अपनी जीवन- यात्रा में निरन्तर आगे बढ़ते हैं । [२] (नियुद्रथः) = हमारे शरीररूप रथ में 'नियुत्' नामक घोड़ों को जोतनेवाला (माहिनः) = महिमावाला, पूजनीय, (पूषा) = सबका पोषण करनेवाला देव (दस्त्रा) = शरीर के सब रोगों को नष्ट करनेवाले प्राणापान को (प्र अविष्टु) = प्रकर्षेण रक्षित करनेवाला हो । उस पूषा के अनुग्रह से हमारी प्राणापान शक्ति अत्यन्त सुरक्षित हो। इसके सुरक्षित होने पर ही हमारी रक्षा निर्भर है।
भावार्थ - भावार्थ - प्रभु कृपा से हमें स्पृहणीय बुद्धि, उत्तम इन्द्रियाश्व तथा सुरक्षित प्राणापान शक्ति प्राप्त हो ।
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