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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 26/ मन्त्र 9
    ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः देवता - पूषा छन्दः - विराडार्ष्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अ॒स्माक॑मू॒र्जा रथं॑ पू॒षा अ॑विष्टु॒ माहि॑नः । भुव॒द्वाजा॑नां वृ॒ध इ॒मं न॑: शृणव॒द्धव॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्माक॑म् । ऊ॒र्जा । रथ॑म् । पू॒षा । अ॒वि॒ष्टु॒ । माहि॑नः । भुव॑त् । वाजा॑नाम् । वृ॒धः । इ॒मम् । नः॒ । शृ॒ण॒व॒त् । हव॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्माकमूर्जा रथं पूषा अविष्टु माहिनः । भुवद्वाजानां वृध इमं न: शृणवद्धवम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्माकम् । ऊर्जा । रथम् । पूषा । अविष्टु । माहिनः । भुवत् । वाजानाम् । वृधः । इमम् । नः । शृणवत् । हवम् ॥ १०.२६.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 26; मन्त्र » 9
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    [१] इस जीवन-यात्रा में गत मन्त्र के अनुसार जब अज बनकर हम शरीर- रथ की धुरा का आवर्तन करें तो वे (पूषा) = सबका पोषण करनेवाले, (माहिनः) = महिमा सम्पन्न प्रभु (अस्माकं रथम्) = हमारे इस शरीर - रथ को ऊर्जा बल व प्राणशक्ति के द्वारा (अविष्टु) = रक्षित करें। उस प्रभु के रक्षण में ही हमारे लिये किसी भी प्रकार की उन्नति का सम्भव होता है । [२] वे प्रभु (वाजानाम्) = हमारी शक्तियों के (वृधः) = वर्धन करनेवाले (भुवत्) = हों । शक्ति-वर्धन के द्वारा ही रक्षण होता है । शक्ति हास ही विनाश का मार्ग है। [३] वे प्रभु (नः) = हमारी (इमं हवम्) = इस प्रार्थना को (शृणवत्) = अवश्य सुनें। हमारी प्रार्थना न सुनने योग्य, न समझी जाए। पुरुषार्थ से हम अपने को पात्र बनायें जिससे प्रभु हमारी प्रार्थना को अवश्य पूर्ण करें ।

    भावार्थ - भावार्थ - प्रभु ही हमारे शरीर रथ के रक्षक हैं, वे ही हमारी शक्तियों का वर्धन करते हैं । सूक्त का प्रारम्भ स्पृहणीय बुद्धियों की प्राप्ति की कामना से होता है । [१] इन बुद्धियों से हम सर्वत्र जलवायु में उस प्रभु की महिमा का अनुभव करते हैं, [२] ये प्रभु ही हमारा पोषण व हमारे पर सुखों का वर्षण करते हैं, [३] हमारी बुद्धियों को सिद्ध करते हैं, [४] वे हमारे सच्चे मित्र हैं, [५] हमारा शोधन करते हैं, [६] मलों का अपहरण करते हैं, [७] इस प्रकार हमें शरीर - रथ की धुरा के वहन के योग्य बनाते हैं, [८] वे ही हमारी सब शक्तियों को बढ़ाते हैं, [९] वे प्रभु यजमान यज्ञशील को ही शक्तिशाली बनाते हैं।

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