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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 29/ मन्त्र 8
    ऋषिः - वसुक्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    व्या॑न॒ळिन्द्र॒: पृत॑ना॒: स्वोजा॒ आस्मै॑ यतन्ते स॒ख्याय॑ पू॒र्वीः । आ स्मा॒ रथं॒ न पृत॑नासु तिष्ठ॒ यं भ॒द्रया॑ सुम॒त्या चो॒दया॑से ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । आ॒न॒ट् । इन्द्रः॑ । पृत॑नाः । सु॒ऽओजाः॑ । आ । अ॒स्मै॒ । य॒त॒न्ते॒ । स॒ख्याय॑ । पू॒र्वीः । आ । स्म॒ । रथ॑म् । न । पृत॑नासु । ति॒ष्ठ॒ । यम् । भ॒द्रया॑ । सु॒ऽम॒त्या । चो॒दया॑से ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    व्यानळिन्द्र: पृतना: स्वोजा आस्मै यतन्ते सख्याय पूर्वीः । आ स्मा रथं न पृतनासु तिष्ठ यं भद्रया सुमत्या चोदयासे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । आनट् । इन्द्रः । पृतनाः । सुऽओजाः । आ । अस्मै । यतन्ते । सख्याय । पूर्वीः । आ । स्म । रथम् । न । पृतनासु । तिष्ठ । यम् । भद्रया । सुऽमत्या । चोदयासे ॥ १०.२९.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 29; मन्त्र » 8
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 23; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    [१] गत मन्त्र के अनुसार (मधुः) = सोम वीर्य से शरीर को सिक्त करनेवाला (स्वोजा:) = उत्तम ओजवाला (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (पृतनाः) = शत्रु- सैन्यों को (व्यानट्) = विशेषरूप से घेरनेवाला, उन्हें पराभूत करनेवाला बनता है। [२] इस प्रकार काम-क्रोधादि शत्रुओं को पराभूत करनेवाले (पूर्वी:) = अपना पूरण करनेवाले लोग (अस्मै सख्याय) = इस प्रभु की मित्रता के लिये (आयतन्ते) = सर्वथा प्रयत्न करते हैं। [३] प्रभु की मित्रता को प्राप्त करके प्रभु से यही चाहते हैं कि (न) = जैसे (पृतनासु) = संग्रामों में (रथम्) = रथ पर सारथि स्थित होता है उसी प्रकार हे प्रभो ! आप भी (स्म) = निश्चय से (रथम्) = हमारे इस शरीर - रथ पर (आतिष्ठ) = आरूढ़ होइये । उस रथ पर (यम्) = जिसको कि (भद्रया सुमत्या) = कल्याणी सुमति से (चोदयासे) = प्रेरित करते हैं ।

    भावार्थ - भावार्थ - प्रभु मेरे रथ के सारथि हों, मैं अपनी जीवनयात्रा की दिशा प्रभु के निर्देश से चुनूँ । सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से होता है कि मैं संयत भोजनवाला बनूँ। [१] सस्यभोजी होऊँ, [२] प्रभु मेरी वाणियों व इन्द्रिय द्वारों को शुद्ध कर दें, [३] प्रभु जैसा बनकर मैं प्रभु को पाऊँ, [४] प्रभु कृपा से भवसागर के पार हो जाऊँ, [५] निर्माता के लिये संसार में न्यूनता नहीं, [६] क्रतु और पौंस्य को सिद्ध कर मैं भी पूर्ण बनूँ, [७] प्रभु मेरे रथ के सारथि हों और मेरी यात्रा सुन्दरता से पूर्ण हो ।

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