ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 42/ मन्त्र 3
किम॒ङ्ग त्वा॑ मघवन्भो॒जमा॑हुः शिशी॒हि मा॑ शिश॒यं त्वा॑ शृणोमि । अप्न॑स्वती॒ मम॒ धीर॑स्तु शक्र वसु॒विदं॒ भग॑मि॒न्द्रा भ॑रा नः ॥
स्वर सहित पद पाठकिम् । अ॒ङ्ग । त्वा॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । भो॒जम् । आ॒हुः॒ । शि॒शी॒हि । मा॒ । शि॒श॒यम् । त्वा॒ । शृ॒णो॒मि॒ । अप्न॑स्वती । मम॑ । धीः । अ॒स्तु॒ । श॒क्र॒ । व॒सु॒ऽविद॑म् । भग॑म् । इ॒न्द्र॒ । आ । भ॒र॒ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
किमङ्ग त्वा मघवन्भोजमाहुः शिशीहि मा शिशयं त्वा शृणोमि । अप्नस्वती मम धीरस्तु शक्र वसुविदं भगमिन्द्रा भरा नः ॥
स्वर रहित पद पाठकिम् । अङ्ग । त्वा । मघऽवन् । भोजम् । आहुः । शिशीहि । मा । शिशयम् । त्वा । शृणोमि । अप्नस्वती । मम । धीः । अस्तु । शक्र । वसुऽविदम् । भगम् । इन्द्र । आ । भर । नः ॥ १०.४२.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 42; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
विषय - 'शिशयं', नकि 'भोज'
पदार्थ -
[१] हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो ! अंग सर्वव्यापक प्रभो ! सर्वत्र गतिशील प्रभो ! (त्वा) = आपको (किम्) = क्यों (भोजम्) = सब भोजनों को प्राप्त कराके पालन करनेवाला (आहुः) = कहते हैं? मैं तो भोजनों की प्रार्थना न करके यही चाहता हूँ कि आप (मा) = मुझे (शिशीहि) = तीक्ष्णा बुद्धिवाला कर दें। मैं (त्वा) = आपको (शिशयम्) = बुद्धि के तीव्र करनेवाले के रूप में (शृणोमि) = सुनता हूँ। [२] साथ ही हे (शक्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो! आपकी कृपा से (मम धी:) = मेरी यह बुद्धि (अप्नस्वती) = कर्मोंवाली (अस्तु) = हो । और हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! आप (नः) = हमारे लिये (वसुविदम्) = सब निवास के लिये आवश्यक तत्त्वों को प्राप्त करानेवाले (भगम्) = भजनीय धन को (आभरः) = सर्वथा प्राप्त कराइये । वस्तुतः प्रभु बुद्धि देकर मुझे इस योग्य बना दें कि मैं निवास के लिये आवश्यक तत्त्वों को जुटाने में समर्थ हो जाऊँ। मैं बुद्धिवाला होऊँ और मेरी बुद्धि कर्म से युक्त हो ।
भावार्थ - भावार्थ - भोजन की प्रार्थना के स्थान में क्रियायुक्त बुद्धि की प्रार्थना उत्तम है। हम प्रभु को शिशय के रूप में स्मरण करें, नकि भोज के रूप में।
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