Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 44 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 44/ मन्त्र 8
    ऋषिः - कृष्णः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    गि॒रीँरज्रा॒न्रेज॑मानाँ अधारय॒द्द्यौः क्र॑न्दद॒न्तरि॑क्षाणि कोपयत् । स॒मी॒ची॒ने धि॒षणे॒ वि ष्क॑भायति॒ वृष्ण॑: पी॒त्वा मद॑ उ॒क्थानि॑ शंसति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गि॒रीन् । अज्रा॑न् । रेज॑मानान् । अ॒धा॒र॒य॒त् । द्यौः । क्र॒न्द॒त् । अ॒न्तरि॑क्षाणि । को॒प॒य॒त् । स॒मी॒ची॒ने इति॑ स॒म्ऽई॒ची॒ने । धि॒षणे॒ इति॑ । वि । स्क॒भा॒य॒ति॒ । वृष्णः॑ । पी॒त्वा । मदे॑ । उ॒क्थानि॑ । शं॒स॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गिरीँरज्रान्रेजमानाँ अधारयद्द्यौः क्रन्ददन्तरिक्षाणि कोपयत् । समीचीने धिषणे वि ष्कभायति वृष्ण: पीत्वा मद उक्थानि शंसति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गिरीन् । अज्रान् । रेजमानान् । अधारयत् । द्यौः । क्रन्दत् । अन्तरिक्षाणि । कोपयत् । समीचीने इति सम्ऽईचीने । धिषणे इति । वि । स्कभायति । वृष्णः । पीत्वा । मदे । उक्थानि । शंसति ॥ १०.४४.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 44; मन्त्र » 8
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 27; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    [१] (वृष्णः) = शक्ति के देनेवाले सोम का (पीत्वा) = पान करके, सोम को शरीर में ही व्याप्त [imbife] करके (मदे) = उल्लास में (उक्थानि) = प्रभु के स्तोत्रों का (शंसति) = शंसन करता है। जिस समय मन्त्र का ऋषि 'गोतम' [प्रशस्तेन्द्रिय पुरुष ] सोम का विनाश न करके उसे शरीर में ही सुरक्षित करता है उस समय नीरोगता व निर्मलता के कारण उसे एक अनुपम उल्लास का अनुभव होता है। उस उल्लास में वह प्रभु की महिमा का गायन करता है। प्रभु की बनाई हुई उस सोमशक्ति में वह प्रभु की महिमा को देखता है । [२] इस सोम के रक्षण के द्वारा वह (समीचीने) = [सम् अञ्च्] उत्तम गतिवाले धिषणे द्यावापृथिवी को, मस्तिष्क व शरीर को (विष्कभायति) = विशेषरूप से थमता है । मस्तिष्क व शरीर की शक्ति को क्षीण न होने देकर इनको वह बढ़ानेवाला होता है । सोम का रक्षण उसकी ज्ञानाग्नि को प्रज्वलित करता है और शरीर में आ जानेवाले रोगकृमियों का नाश करता है। मस्तिष्क को उज्ज्वल बनाना व शरीर को नीरोग बनाना ही द्यावापृथिवी का धारण है । इस सोम रक्षक पुरुष के मस्तिष्क व शरीर दोनों समीचीन होते हैं। मस्तिष्क ज्ञान का ग्रहण करनेवाला होता है तो शरीर रोगशून्य होता है । [३] यह (अज्रान्) = अपनी गति के द्वारा विक्षिप्त करनेवाले (रेजमानान्) = अत्यन्त कम्पित करते हुए (गिरीन्) = अविद्या पर्वतों को (अधारयत्) = थामता है अविद्या पर्वतों के आक्रमण से अपने को बचाता है। इसका (द्यौ:) = मस्तिष्करूप द्युलोक (अक्रन्दत्) = प्रभु का आह्वान करनेवाला होता है, अर्थात् यह अपने ज्ञान के प्रकाश से प्रभु को देखता है और उसे अपने रक्षण के लिये पुकारता है। यह (अन्तरिक्षाणि) = अपने हृदयान्तरिक्षों को (कोपयत्) = [कोपयति to shine] दीप्त करता है। प्रभु के प्रकाश से हृदय का दीप्त होना स्वाभाविक है ।

    भावार्थ - भावार्थ- सोम के रक्षण से हमारे मस्तिष्क व शरीर उत्तम हों ।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top