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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 53 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 53/ मन्त्र 11
    ऋषिः - देवाः देवता - अग्निः सौचीकः छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    गर्भे॒ योषा॒मद॑धुर्व॒त्समा॒सन्य॑पी॒च्ये॑न॒ मन॑सो॒त जि॒ह्वया॑ । स वि॒श्वाहा॑ सु॒मना॑ यो॒ग्या अ॒भि सि॑षा॒सनि॑र्वनते का॒र इज्जिति॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गर्भे॑ । योषा॑म् । अद॑धुः । व॒त्सम् । आ॒सनि॑ । अ॒पी॒च्ये॑न । मन॑सा । उ॒त । जि॒ह्वया॑ । सः । वि॒श्वाहा॑ । सु॒ऽमनाः॑ । यो॒ग्याः । अ॒भि । स॒सा॒सनिः॑ । व॒न॒ते॒ । का॒रः । इत् । जिति॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गर्भे योषामदधुर्वत्समासन्यपीच्येन मनसोत जिह्वया । स विश्वाहा सुमना योग्या अभि सिषासनिर्वनते कार इज्जितिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गर्भे । योषाम् । अदधुः । वत्सम् । आसनि । अपीच्येन । मनसा । उत । जिह्वया । सः । विश्वाहा । सुऽमनाः । योग्याः । अभि । ससासनिः । वनते । कारः । इत् । जितिम् ॥ १०.५३.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 53; मन्त्र » 11
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    [१] गत मन्त्र के कवि-तत्त्वद्रष्टा लोग (गर्भे) = अपने हृदय देश में (योषाम्) = इन बुराइयों को दूर करनेवाली व अच्छाइयों से मेल करनेवाली वेदवाणी रूप योषा को (अदधुः) = स्थापित करते हैं। पिछले मन्त्र में यही भाव 'विद्वांसः पदा गुह्यानि कर्तन' इन शब्दों से कहा गया था । [२] (वत्सम्) = इस वेदवाणी से प्रतिपादित होने के कारण इसके वत्स तुल्य 'अग्नि ई वै ब्रह्मणो वत्सः ' [जै० उ० २ । १३ । १] उस अग्नि नामक प्रभु को (आसन्) = मुख में धारण करते हैं, अर्थात् मुख से उस प्रभु के ही नाम-स्मरण को करते हैं । 'वदति इति वत्सः ' इस व्युत्पत्ति से वेदवाणी का सृष्टि प्रारम्भ में उच्चारण करनेवाले प्रभु ही वत्स हैं, उन प्रभु को ये लोग सदा स्मरण करते हैं । (अपीच्येन मनसा) = अन्तर्हित मन से, विषयों की ओर जाने से रोककर मन को हृदय में ही प्रतिष्ठित करने के द्वारा इस प्रभु का साक्षात्कार होता है, इसी अन्तर्निरुद्ध मन से ही प्रभु के नाम का मनन होता है । (उत) = और (जिह्वया) = जिह्वा से । ये लोग जिह्वा से प्रभु के नाम का जप करते हैं [ तज्जपः ] और निरुद्ध मन से उस नाम के अर्थ का चिन्तन करते हैं [तदर्थ भावनम्] । [३] (स) = इस प्रकार जप व भावन करने वाला वह व्यक्ति (विश्वाहा) = सदा (सुमनाः) = उत्तम मनवाला होता है प्रभु के स्मरण से सौमनस्य क्यों न प्राप्त होगा ? यह (सिषासनिः) = प्रभु का सम्भजन करनेवाला व्यक्ति (योग्याः अभिवनते) = [योग्या - lxercise लक्ष्यवेध की काया में] लक्ष्यवेध के अभ्यासों में विजय को प्राप्त करता है [वभ् win] | क्षत्रिय लोग जैसे शराभ्यास करते हुए लक्ष्यवेध का प्रयत्न करते हैं, उसी प्रकार यह उपासक प्रणव को धनुष बनाकर तथा आत्मा को ही शर बनाकर ब्रह्मरूप लक्ष्य का वेध करने का प्रयत्न करता है । अभ्यास के द्वारा इसमें विजयी बनता है और इत्- निश्चय से जितिं कार- विजय को करनेवाला होता है। इस लक्ष्यवेध में विजेता बनकर यह होता है और अमृतत्व को प्राप्त करता है ।

    भावार्थ - भावार्थ - वेदवाणी को हम हृदय में धारण करें। प्रभु के नाम का जप व उसके अर्थ का भावन करें । ब्रह्मरूप लक्ष्य का वेध करें, विजयी बनें। सूक्त के प्रारम्भ में यही कहा था कि 'यमैच्छाम मनसा सोऽयमागात् ' = जिस प्रभु की हमने कामना की थी वे प्रभु आये हैं । [१] यहाँ समाप्ति पर उस प्रभु में ही मिल जाने का उल्लेख है, [२] एवं यह सूक्त प्रभु के उत्कृष्ट उपासन का प्रतिपादन कर रहा है। अब प्रभु को प्राप्त करनेवाला खूब ही उस प्रभु का स्तवन करता है सो 'बृहदुक्थः ' कहलाता है और सुन्दर दिव्यगुणोंवाला होने से 'वामदेव्य' बनता है। यह 'बृहदुक्थ वामदेव्य' प्रार्थना करता है कि-

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