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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 60 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 60/ मन्त्र 1
    ऋषिः - बन्ध्वादयो गौपायनाः देवता - असमाती राजा छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    आ जनं॑ त्वे॒षसं॑दृशं॒ माही॑नाना॒मुप॑स्तुतम् । अग॑न्म॒ बिभ्र॑तो॒ नम॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । जन॑म् । त्वे॒षऽस॑न्दृशम् । माही॑नानाम् । उप॑ऽस्तुतम् । अग॑न्म । बिभ्र॑तः । नमः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ जनं त्वेषसंदृशं माहीनानामुपस्तुतम् । अगन्म बिभ्रतो नम: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । जनम् । त्वेषऽसन्दृशम् । माहीनानाम् । उपऽस्तुतम् । अगन्म । बिभ्रतः । नमः ॥ १०.६०.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 60; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] (नमः बिभ्रतः) = नमस्कार को धारण करते हुए, बद्धाञ्जलि होकर अथवा आदर की भावना को धारण करते हुए हम (आ अगन्म) = सर्वथा प्राप्त हों । (जनम्) = उस मनुष्य को प्राप्त हों जो कि (त्वेषसन्दृशम्) = दीप्त- दर्शनवाला है, जिसका मुख तेजस्विता से दीप्त है तो मस्तिष्क ज्ञान की दीप्ति से उज्ज्वल है। इसके सम्पर्क में आकर हम भी इसी प्रकार बन पायेंगे। हमारा भी शरीर तेजस्वी होगा और मस्तिष्क ज्ञान की दीप्तिवाला बनेगा। [२] हम उस मनुष्य को प्राप्त होते हैं जो कि (माहीनानां उपस्तुतम्) = पूजा के योग्यों के लिये उपगत स्तुतिवाला है, पूजनीयों की पूजा करनेवाला है । वही पुरुष संगतिकरण योग्य है जो कि हृदय में प्रभु की पूजा की भावना से ओत- प्रोत है ।

    भावार्थ - भावार्थ- हम उन लोगों को नमस्कृत करें जो तेजस्विता से दीप्त मुखवाले, ज्ञान से उज्ज्वल मस्तिष्कवाले तथा हृदय में पूज्यों की पूजा की वृत्तिवाले हैं। जिससे हमारा भी जीवन इसी प्रकार का बने ।

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