ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 60/ मन्त्र 2
ऋषिः - बन्ध्वादयो गौपायनाः
देवता - असमाती राजा
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
अस॑मातिं नि॒तोश॑नं त्वे॒षं नि॑य॒यिनं॒ रथ॑म् । भ॒जेर॑थस्य॒ सत्प॑तिम् ॥
स्वर सहित पद पाठअस॑मातिम् । नि॒ऽतोश॑नम् । त्वे॒षम् । नि॒ऽय॒यिन॑म् । रथ॑म् । भ॒जेऽर॑थस्य । सत्ऽप॑तिम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
असमातिं नितोशनं त्वेषं निययिनं रथम् । भजेरथस्य सत्पतिम् ॥
स्वर रहित पद पाठअसमातिम् । निऽतोशनम् । त्वेषम् । निऽययिनम् । रथम् । भजेऽरथस्य । सत्ऽपतिम् ॥ १०.६०.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 60; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
विषय - किनका संग ?
पदार्थ -
[१] (भजे) = मैं सेवन व उपासन करता हूँ उस पुरुष का जो कि [क] (असमातिम्) = असमान व अनुपम है, unpasselleded-अपने क्षेत्र में अपनी समतावाले को नहीं रखता। [ख] (नितोशनम्) = निश्चय से काम-क्रोध आदि शत्रुओं का संहार करनेवाला है, [ग] (त्वेषम्) = कामादि शत्रुओं के संहार के कारण दीप्त जीवनवाला है। इन वासनाओं ने ही तो ज्ञान पर परदा डाला हुआ था, इस आवरण के हट जाने पर उसका ज्ञान चमक उठता है, [घ] (निययिनम्) = गतिशील है, जिसका जीवन अकर्मण्य नहीं। [ङ] (रथम्) = जो तीव्र गतिवाला है, स्फूर्ति से सब कार्यों को करनेवाला है। क्रियाशील है और क्रियाओं को स्फूर्ति से करता है। [ रंहतेर्रा स्माद् गतिकर्मणः ] [च] (रथस्य सत्पतिम्) = शरीर रूप रथ का उत्तम रक्षक है। अर्थात् अपने स्वास्थ्य का पूरा ध्यान करता है । यदि यह शरीर रूप रथ विकृत हो जाए तो अन्य सब बातें तो व्यर्थ ही हो जाती हैं ।[२] एवं हमारा सम्पर्क उल्लिखित ६ बातों से युक्त जीवनवाले पुरुष के साथ होगा तो हम भी अपने जीवन में अनुपम उन्नति करनेवाले, कामादि का पराभव करनेवाले, दीप्त, गतिशील, स्फूर्तिमय व स्वस्थ बनेंगे। यह संग ही तो हमारे जीवन को बनानेवाला होता है।
भावार्थ - भावार्थ- उत्तम सम्पर्क से हम भी अपने जीवन को उत्तम बना पायें।
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