ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 60/ मन्त्र 4
ऋषिः - बन्ध्वादयो गौपायनाः
देवता - असमाती राजा
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
यस्ये॑क्ष्वा॒कुरुप॑ व्र॒ते रे॒वान्म॑रा॒य्येध॑ते । दि॒वी॑व॒ पञ्च॑ कृ॒ष्टय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । इ॒क्ष्वा॒कुः । उप॑ । व्र॒ते । रे॒वान् । म॒रा॒यी । एध॑ते । दि॒विऽइ॑व । पञ्च॑ । कृ॒ष्टयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्येक्ष्वाकुरुप व्रते रेवान्मराय्येधते । दिवीव पञ्च कृष्टय: ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । इक्ष्वाकुः । उप । व्रते । रेवान् । मरायी । एधते । दिविऽइव । पञ्च । कृष्टयः ॥ १०.६०.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 60; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
विषय - इक्ष्वाकु
पदार्थ -
[१] 'असमाति' वह है अनुपम जीवनवाला वह है, (यस्य) = जिसके (व्रते) -= गत मन्त्र में वर्णित काम-क्रोध-लोभ रूप शत्रुओं के साथ सतत युद्ध रूप व्रत में, अर्थात् इस अध्यात्म युद्ध को स्वयं अपनानेवाला (इक्ष्वाकुः) = [ इक्षु = इच्छा desire, आकु:-one who bends अञ्च्] इच्छाओं व कामनाओं को झुकानेवाला पुरुष (रेवान्) = उत्तम अध्यात्म सम्पत्तिवाला होता हुआ (मरायी) = शत्रुओं को मारनेवाला, काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं को नष्ट करनेवाला (उपैधते) = खूब ही वृद्धि को प्राप्त होता है । उसी प्रकार वृद्धि को प्राप्त होता है (इव) = जैसे (पञ्च कृष्टयः) = 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र व निषाद ' इन पाँच भागों में विभक्त हुए हुए मनुष्य दिवि ज्ञान के प्रकाश में वृद्धि को प्राप्त करते हैं। ज्ञान मनुष्य के जीवन को पवित्र करता है। ज्ञान से हमारी न्यूनताएँ दूर होती हैं और हम पूर्णता की ओर अग्रसर होते हैं । [२] कामनाओं को दबानेवाला 'इक्ष्वाकु' अध्यात्म संग्राम में जुटकर के आगे बढ़ता है । वह अध्यात्म- सम्पत्ति को प्राप्त करता हुआ वृद्धि को प्राप्त करता है ।
भावार्थ - भावार्थ- हम भी अध्यात्म-संग्राम का व्रत लें। इस संग्राम में कामादि शत्रुओं को मारकर आत्म- सम्पत्तिवाले बनें।
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