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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 64 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 64/ मन्त्र 16
    ऋषिः - गयः प्लातः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒वा क॒विस्तु॑वी॒रवाँ॑ ऋत॒ज्ञा द्र॑विण॒स्युर्द्रवि॑णसश्चका॒नः । उ॒क्थेभि॒रत्र॑ म॒तिभि॑श्च॒ विप्रोऽपी॑पय॒द्गयो॑ दि॒व्यानि॒ जन्म॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । क॒विः । तु॒वि॒ऽरवा॑न् । ऋ॒त॒ऽज्ञाः । द्र॒वि॒ण॒स्युः । द्रवि॑णसः । च॒का॒नः । उ॒क्थेभिः॑ । अत्र॑ । म॒तिऽभिः॑ । च॒ । विप्रः॑ । अपी॑पयत् । गयः॑ । दि॒व्यानि॑ । जन्म॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा कविस्तुवीरवाँ ऋतज्ञा द्रविणस्युर्द्रविणसश्चकानः । उक्थेभिरत्र मतिभिश्च विप्रोऽपीपयद्गयो दिव्यानि जन्म ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव । कविः । तुविऽरवान् । ऋतऽज्ञाः । द्रविणस्युः । द्रविणसः । चकानः । उक्थेभिः । अत्र । मतिऽभिः । च । विप्रः । अपीपयत् । गयः । दिव्यानि । जन्म ॥ १०.६४.१६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 64; मन्त्र » 16
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    [१] (एवा) = गत मन्त्र में वर्णित प्रकार से (गयः) = प्राणों का रक्षक [गयाः प्राणाः] प्राणसाधना करनेवाला 'गय' (कविः) = कान्तप्रज्ञ बनता है, सृष्टि के पदार्थों के तत्त्वज्ञान को प्राप्त करता है। (तुवीरवान्) = [तुवि + ईर+वान् ] हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा को खूब ही सुनता है, बहुत प्रेरणावाला होता है । (ऋतज्ञाः) = ऋत को जाननेवाला, यज्ञों [ऋत यज्ञ] को समझनेवाला अथवा बड़े नियमित कार्यक्रमवाला होता है । (द्रविणस्युः) = संसार- यात्रा के साधक द्रविणों को चाहनेवाला और उन द्रविणों के उत्तम उपयोग के द्वारा वह (द्रविणसः चकानः) = उन द्रविणों को दीप्त करनेवाला होता है [ कन् दीप्तौ ] । इन धनों से उसकी शोभा बढ़ती ही है। प्रभु स्मरण के कारण व प्रभु-प्रेरणा को सुनने के कारण इन धनों से यह वासनामय जगत् में नहीं पहुँच जाता, वैषयिक वृत्ति का न बनकर इनको वह जीवनयात्रा को पूर्ति का साधन मात्र ही जानता है। [२] इस प्रकार (अत्र) = इस जीवन में (गयः) = यह प्राणसाधक पुरुष (उक्थेभिः) = प्रभु के स्तोत्रों के द्वारा (च) = और (मतिभिः) = मननों के द्वारा प्रत्येक पदार्थ में प्रभु की महिमा को देखने के द्वारा (विप्र:) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाला बनता है और (दिव्यानि जन्म) = दिव्य प्रादुर्भावों व विकासों का (अपीपयत्) = वर्धन करता है । अपने अन्दर दिव्यता का अधिकाधिक विकास करनेवाला होता है। प्रभु का स्तवन व मनन करता हुआ यह बहुत कुछ प्रभु जैसा ही बनता जाता है। प्रभु जैसा बनना ही तो जीवन का लक्ष्य है ।

    भावार्थ - भावार्थ - प्रभु स्तवन व मनन के द्वारा हम अपने जीवनों में दिव्यता का विकास करें ।

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