ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 64/ मन्त्र 17
ऋषिः - गयः प्लातः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ए॒वा प्ल॒तेः सू॒नुर॑वीवृधद्वो॒ विश्व॑ आदित्या अदिते मनी॒षी । ई॒शा॒नासो॒ नरो॒ अम॑र्त्ये॒नास्ता॑वि॒ जनो॑ दि॒व्यो गये॑न ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । प्ल॒तेः । सू॒नुः । अ॒वी॒वृ॒ध॒त् । वः॒ । विश्वे॑ । आ॒दि॒त्याः॒ । अ॒दि॒ते॒ । म॒नी॒षी । ई॒शा॒नासः॑ । नरः॑ । अम॑र्त्येन । अस्ता॑वि । जनः॑ । दि॒व्यः । गये॑न ॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा प्लतेः सूनुरवीवृधद्वो विश्व आदित्या अदिते मनीषी । ईशानासो नरो अमर्त्येनास्तावि जनो दिव्यो गयेन ॥
स्वर रहित पद पाठएव । प्लतेः । सूनुः । अवीवृधत् । वः । विश्वे । आदित्याः । अदिते । मनीषी । ईशानासः । नरः । अमर्त्येन । अस्तावि । जनः । दिव्यः । गयेन ॥ १०.६४.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 64; मन्त्र » 17
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 7
विषय - ईशानासः
पदार्थ -
१०.६३. १७ पर यह मन्त्र द्रष्टव्य है । यह सूक्त 'प्रभु स्मरण से हम सुखी, नीरोग व सुरक्षित जीवनवाले होंगे। इन शब्दों से प्रारम्भ होता है, [१] और इस प्रभु स्मरण से हमारे जीवनों में दिव्यता का विकास होगा इन शब्दों के साथ समाप्त होता है, [१६] अपने में दिव्यता का विकास करनेवाला व्यक्ति जीवन को सब वसुओं से, निवास के लिये आवश्यक तत्त्वों से व्याप्त करता है और 'वसुकर्ण' बनता है। यह वसुकर्ण वासुक्र प्रार्थना करता है कि-