ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 83/ मन्त्र 2
म॒न्युरिन्द्रो॑ म॒न्युरे॒वास॑ दे॒वो म॒न्युर्होता॒ वरु॑णो जा॒तवे॑दाः । म॒न्युं विश॑ ईळते॒ मानु॑षी॒र्याः पा॒हि नो॑ मन्यो॒ तप॑सा स॒जोषा॑: ॥
स्वर सहित पद पाठम॒न्युः । इन्द्रः॑ । म॒न्युः । ए॒व । आ॒स॒ । दे॒वः । म॒न्युः । होता॑ । वरु॑णः । जा॒तऽवे॑दाः । म॒न्युम् । विशः॑ । ई॒ळ॒ते॒ । मानु॑षीः । याः । पा॒हि । नः॒ । म॒न्यो॒ इति॑ । तप॑सा । स॒ऽजोषाः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मन्युरिन्द्रो मन्युरेवास देवो मन्युर्होता वरुणो जातवेदाः । मन्युं विश ईळते मानुषीर्याः पाहि नो मन्यो तपसा सजोषा: ॥
स्वर रहित पद पाठमन्युः । इन्द्रः । मन्युः । एव । आस । देवः । मन्युः । होता । वरुणः । जातऽवेदाः । मन्युम् । विशः । ईळते । मानुषीः । याः । पाहि । नः । मन्यो इति । तपसा । सऽजोषाः ॥ १०.८३.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 83; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
विषय - 'इन्द्र-देव- वरुण-जातवेदाः'
पदार्थ -
[१] यह (मन्युः) = ज्ञान ही (इन्द्रः) = इन्द्र है। ज्ञान ही हमें इन्द्रियों का अधिष्ठाता बनने की प्रेरणा देता है। इस ज्ञान से ही हम आसुरवृत्तियों के संहार करनेवाले वृत्रहन्ता 'इन्द्र' बनते हैं । [२] (मन्युः एव) = यह ज्ञान ही (देवः आस) = देव है । यही हमें दिव्यवृत्तियोंवाला बनाता है। ज्ञानी पुरुष ही संसार की सब क्रियाओं को एक क्रीडक की मनोवृत्ति से करता हुआ सच्चा देव बनता है 'दिव् क्रीडा' । [३] (मन्युः) = ज्ञान ही (होता) = दानपूर्वक अदन करनेवाला, यज्ञ करके यज्ञशेष का सेवन करनेवाला होता है। ज्ञानी कभी अकेला नहीं खाता, सबके साथ बाँटकर ही खाता है। यह मन्यु ही (वरुणः) = हमारे से द्वेष का निवारण करनेवाला है और (जातवेदाः) = आवश्यक धनों [वेदस्-walth] को उत्पन्न करनेवाला है। ज्ञान से मनुष्य में आवश्यक धन को प्राप्त कर सकने की योग्यता आ जाती है । [४] (याः मानुषीः विशः) = ये विचारशील प्रजाएँ हैं वे (मन्युं ईडते) = ज्ञान का उपासन करती हैं, अपने जीवन में ज्ञानसाधना में प्रवृत्त होती हैं । हे (मन्यो) = ज्ञान ! (तपसा सजोषाः) = तप के साथ हमारे लिये समान प्रीतिवाला होता हुआ (नः पाहि) = तू हमारा रक्षण कर । तपस्या के साथ ही ज्ञान का निवास है । तप के अभाव में ज्ञान भी क्षरित हो जाता है । तपस्या से उत्पन्न हुआ हुआ ज्ञान हमें वासनाओं का शिकार हो जाने से बचाता है ।
भावार्थ - भावार्थ - ज्ञान से हम जितेन्द्रिय, दिव्यगुणोंवाले, दाता, निर्द्वेष तथा धनार्जन की क्षमतावाले होते हैं। यह ज्ञान ही हमारा रक्षण करता है ।
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