ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 91/ मन्त्र 14
यस्मि॒न्नश्वा॑स ऋष॒भास॑ उ॒क्षणो॑ व॒शा मे॒षा अ॑वसृ॒ष्टास॒ आहु॑ताः । की॒ला॒ल॒पे सोम॑पृष्ठाय वे॒धसे॑ हृ॒दा म॒तिं ज॑नये॒ चारु॑म॒ग्नये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयस्मि॑न् । अश्वा॑सः । ऋ॒ष॒भासः॑ । उ॒क्षणः॑ । व॒शाः । मे॒षाः । अ॒व॒ऽसृ॒ष्टासः । आऽहु॑ताः । की॒ला॒ल॒ऽपे । सोम॑ऽपृष्ठाय । वे॒धसे॑ । हृ॒दा । म॒तिम् । ज॒न॒ये॒ । चारु॑म् । अ॒ग्नये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्मिन्नश्वास ऋषभास उक्षणो वशा मेषा अवसृष्टास आहुताः । कीलालपे सोमपृष्ठाय वेधसे हृदा मतिं जनये चारुमग्नये ॥
स्वर रहित पद पाठयस्मिन् । अश्वासः । ऋषभासः । उक्षणः । वशाः । मेषाः । अवऽसृष्टासः । आऽहुताः । कीलालऽपे । सोमऽपृष्ठाय । वेधसे । हृदा । मतिम् । जनये । चारुम् । अग्नये ॥ १०.९१.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 91; मन्त्र » 14
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
विषय - प्रभु प्राप्ति किनको ?
पदार्थ -
[१] मैं (अग्नये) = उस अग्रेणी प्रभु के लिए (हृदा) = श्रद्धा से (चारुं मतिम्) ज्ञान का खूब ही वरण करनेवाली बुद्धि को (जनये) = उत्पन्न करता हूँ । इस सूक्ष्म बुद्धि से ही तो प्रभु का दर्शन होता है । उस प्रभु की प्राप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक आचार्यों के समीप रहकर स्वाध्याय करते हुए बुद्धि को सूक्ष्म बनाना ही मार्ग है । [२] उस प्रभु की प्राप्ति के लिए मैं मति को उत्पन्न करता हूँ जो (वेधसे) = सृष्टि के विधाता हैं। (कीलालपे) = हमारे शरीर में (कीलाल) = आपः - रेतः कणों का रक्षण करनेवाले हैं। प्रभु स्मरण से वासना विनष्ट होती है और वासना - विनाश से शरीर में इस रेतः शक्ति का रक्षण होता है। इस रेतःशक्ति को 'कीलाल' [कील+अल] इसलिए कहा है कि यह शरीर में [कील बन्धने] बद्ध होकर [अल-वारण] रोगों का वारण करती है । (सोमपृष्ठाय) = वे प्रभु 'सोम पृष्ठ' हैं, सौम्यता के आधार व पोषक हैं। जो व्यक्ति जितना-जितना प्रभु के समीप होता जाता है उतना उतना सौम्य बनता जाता है 'ब्रह्मणा अर्वाङ् विपश्यति' । एवं प्रभु के उपासन से मैं शक्ति का रक्षण करके नीरोग बनूँगा, सौम्य बनूँगा और निर्माणात्मक कार्यों में प्रवृत्त हो पाऊँगा । [३] उस प्रभु की प्राप्ति के लिये मैं बुद्धि को सूक्ष्म बनाता हूँ (यस्मिन्) = जिसमें (अश्वासः) = [अशू व्याप्तौ ] सदा कर्मों में व्याप्त रहनेवाले लोग, (ऋषभासः) = शक्ति का सम्पादन करके आन्तर शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाले [ऋष = to kill] (उक्षण:) = अपने को सुरक्षित वीर्य से सिक्त करनेवाले, (वशा:) = अपने को वश में करनेवाले तथा (मेषा:) = [to rival to contend] स्पर्धापूर्वक आगे बढ़नेवाले लोग (अव- सृष्टासः) = विषय - व्यावृत्त होकर [ अव-away] भेजे हुए [seud forth] होते हैं, अर्थात् ये लोग विषयों में न फँसकर प्रभु की ओर चलनेवाले होते हैं। और अन्ततोगत्वा (आहुताः) = उस प्रभु के प्रति अर्पित होते हैं [हुदाने] । ये अपना प्रभु के प्रति अर्पण करनेवाले बनते हैं।
भावार्थ - भावार्थ - हम 'अश्व, ऋषभ, उक्षा, वश व मेष' बनकर प्रभु के प्रति चलें, उसके प्रति अपना अर्पण करें। वे प्रभु हमारी शक्ति का रक्षण करनेवाले, हमें सौम्यता को प्राप्त करानेवाले व हमारी सब शक्तियों का निर्माण करनेवाले हैं । उस प्रभु की प्राप्ति के लिए हम श्रद्धा से ज्ञानोत्पादिनी बुद्धि को अपने में उत्पन्न करते हैं ।
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