ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 11/ मन्त्र 19
सने॑म॒ ये त॑ ऊ॒तिभि॒स्तर॑न्तो॒ विश्वाः॒ स्पृध॒ आर्ये॑ण॒ दस्यू॑न्। अ॒स्मभ्यं॒ तत्त्वा॒ष्ट्रं वि॒श्वरू॑प॒मर॑न्धयः सा॒ख्यस्य॑ त्रि॒ताय॑॥
स्वर सहित पद पाठसने॑म । ये । ते॒ । ऊ॒तिऽभिः॑ । तर॑न्तः । विश्वाः॑ । स्पृधः॑ । आर्ये॑ण । दस्यू॑न् । अ॒स्मभ्य॑म् । तत् । त्वा॒ष्ट्रम् । वि॒श्वऽरू॑पम् । अर॑न्धयः । सा॒ख्यस्य॑ । त्रि॒ताय॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सनेम ये त ऊतिभिस्तरन्तो विश्वाः स्पृध आर्येण दस्यून्। अस्मभ्यं तत्त्वाष्ट्रं विश्वरूपमरन्धयः साख्यस्य त्रिताय॥
स्वर रहित पद पाठसनेम। ये। ते। ऊतिऽभिः। तरन्तः। विश्वाः। स्पृधः। आर्येण। दस्यून्। अस्मभ्यम्। तत्। त्वाष्ट्रम्। विश्वऽरूपम्। अरन्धयः। साख्यस्य। त्रिताय॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 11; मन्त्र » 19
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
विषय - विश्वरूप दर्शन
पदार्थ -
१. (ये) = जो हम (ते) = आपके (ऊतिभिः) = रक्षणों से (विश्वाः स्पृधः) = सब स्पर्धा करते हुए शत्रुओं को (तरन्तः) = तैरनेवाले हैं तथा (आर्येण) = आर्यभाव से (दस्यून्) = दस्युओं को तैरते हैं, वे हम (सनेम) = आपका संभजन करनेवाले हों। प्रभु के भक्त आर्यभाव से दस्युओं को पराजित करते हैं—'अक्रोधेन जयेत् क्रोधम्' । २. (अस्मभ्यम्) = ऐसे हमारे लिए आप (तत्) = उस (त्वाष्ट्रम्) = विश्वनिर्मातृ-सम्बद्ध (विश्वरूपम्) = विश्वरूप को (अरन्धयः) = सिद्ध करिए। हम प्रत्येक पिण्ड में आपकी महिमा देखनेवाले बनें। हमें सर्वत्र आपका ही रूप दिखे । ३. हे प्रभो ! (त्रिताय) ='काम, क्रोध व लोभ' को तैर जानेवाले मेरे लिए [त्रीन् तरति] अथवा ज्ञान, कर्म व भक्ति तीनों का विस्तार करनेवाले मेरे लिए [त्रीन् तनोति] आप (साख्यस्य) = मित्रता सम्बन्धी [सख्यस्य इदम्] रूप को सिद्ध करिए, अर्थात् त्रित बनकर मैं अपने को आपकी मित्रता के योग्य बना पाऊँ ।
भावार्थ - भावार्थ - प्रभु के रक्षण से हम सब शत्रुओं को जीत पाएँ। आर्यभाव से दस्युओं को समाप्त करते हुए हम प्रभु के विश्वरूप को देखें। सर्वत्र प्रभु को देखते हुए हम त्रित बनें और प्रभु की मित्रता के पात्र हों।
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