ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 11/ मन्त्र 20
अ॒स्य सु॑वा॒नस्य॑ म॒न्दिन॑स्त्रि॒तस्य॒ न्यर्बु॑दं वावृधा॒नो अ॑स्तः। अव॑र्तय॒त्सूर्यो॒ न च॒क्रं भि॒नद्ब॒लमिन्द्रो॒ अङ्गि॑रस्वान्॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्य । सु॒वा॒नस्य॑ । म॒न्दिनः॑ । त्रि॒तस्य॑ । नि । अर्बु॑दम् । व॒वृ॒धा॒नः । अ॒स्त॒रित्य॑स्तः । अव॑र्तयत् । सूर्यः॑ । न । च॒क्रम् । भि॒नत् । व॒लम् । इन्द्रः॑ । अङ्गि॑रस्वान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्य सुवानस्य मन्दिनस्त्रितस्य न्यर्बुदं वावृधानो अस्तः। अवर्तयत्सूर्यो न चक्रं भिनद्बलमिन्द्रो अङ्गिरस्वान्॥
स्वर रहित पद पाठअस्य। सुवानस्य। मन्दिनः। त्रितस्य। नि। अर्बुदम्। ववृधानः। अस्तरित्यस्तः। अवर्तयत्। सूर्यः। न। चक्रम्। भिनत्। बलम्। इन्द्रः। अङ्गिरस्वान्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 11; मन्त्र » 20
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
विषय - बल-विभेदन
पदार्थ -
१. (अस्य) = इस (सुवानस्य) = अपने अन्दर सोम का [= वीर्य का] सम्पादन करनेवाले (मन्दिनः) = सदा प्रसन्न रहनेवाले (त्रितस्य) = काम, क्रोध, लोभ को तैरनेवाले [त्रीन् तरति] त्रित के (अर्बुदम्) = [मेघं] ज्ञानरूप सूर्य पर आवरण रूप से आ जानेवाले वासनारूप मेघ को (वावृधानः) = स्तुतियों से वर्धन किये जाते हुए आप (नि अस्तः) = निश्चय से दूर फेंकते हो- छिन्न-भिन्न कर देते हो । २. यह त्रित (सूर्यः न) = सूर्य के समान (चक्रम्) = चक्र को (अवर्तयत्) = घुमाता है। सूर्य जैसे अपने अक्ष पर निरन्तर घूम रहा है— चक्राकार गति में चल रहा है इसी प्रकार यह त्रित चक्राकार गति में चलता है। इसका दिन का कार्यचक्र बड़ी नियमित गति से घूमता है। कार्यचक्र में चलता हुआ यह (वलम्) = [Veil] ज्ञान के आवृत करनेवाले वृत्र को (भिनद्) = विदीर्ण करता है । (इन्द्रः) = शक्तिशाली कर्मों का करनेवाला होता है। (अङ्गिरस्वान्)-अङ्ग-प्रत्यङ्ग में रसवाला होता है।
भावार्थ - भावार्थ- सूर्य की तरह अपने कार्यचक्र में चलने पर हम वृत्र का विनाश करके 'इन्द्र' व‘अङ्गिरस्वान्' बनते हैं।
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