ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 10/ मन्त्र 1
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराडुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
त्वाम॑ग्ने मनी॒षिणः॑ स॒म्राजं॑ चर्षणी॒नाम्। दे॒वं मर्ता॑स इन्धते॒ सम॑ध्व॒रे॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । अ॒ग्ने॒ । म॒नी॒षिणः॑ । स॒म्ऽराज॑म् । च॒र्ष॒णी॒नाम् । दे॒वम् । मर्ता॑सः । इ॒न्ध॒ते॒ । सम् । अ॒ध्व॒रे ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामग्ने मनीषिणः सम्राजं चर्षणीनाम्। देवं मर्तास इन्धते समध्वरे॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम्। अग्ने। मनीषिणः। सम्ऽराजम्। चर्षणीनाम्। देवम्। मर्तासः। इन्धते। सम्। अध्वरे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
विषय - मनीषियों को प्रभुदर्शन
पदार्थ -
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (मनीषिणः मर्तासः) = बुद्धिमान् मनुष्य (अध्वरे) = इस जीवनयज्ञ में (त्वां समिन्धते) = आपको ही समिद्ध करते हैं आपका ही दर्शन करने का प्रयत्न करते हैं। प्रभु का दर्शन 'मनीषा' = बुद्धि से ही होता है 'दृश्यते त्वग्रया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः'। [२] बुद्धिमान् पुरुष देखता है कि वे प्रभु ही (चर्षणीनां सम्राजम्) = श्रमशील पुरुषों के जीवनों को दीप्त करनेवाले हैं। (देवम्) = प्रकाशमय हैं, इन चर्षणियों को श्रमशील व्यक्तियों को प्रकाश प्राप्त करानेवाले हैं।
भावार्थ - भावार्थ- श्रमशील पुरुषों के जीवनों को दीप्त करनेवाले उस प्रकाशमय प्रभु का दर्शन मनीषी [बुद्धिमान्] ही कर पाते हैं।
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