ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिग्गायत्री
स्वरः - षड्जः
त्वां य॒ज्ञेष्वृ॒त्विज॒मग्ने॒ होता॑रमीळते। गो॒पा ऋ॒तस्य॑ दीदिहि॒ स्वे दमे॑॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । य॒ज्ञेषु॑ । ऋ॒त्विज॑म् । अग्ने॑ । होता॑रम् । ई॒ळ॒ते॒ । गो॒पाः । ऋ॒तस्य॑ । दी॒दि॒हि॒ । स्वे । दमे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वां यज्ञेष्वृत्विजमग्ने होतारमीळते। गोपा ऋतस्य दीदिहि स्वे दमे॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम्। यज्ञेषु। ऋत्विजम्। अग्ने। होतारम्। ईळते। गोपाः। ऋतस्य। दीदिहि। स्वे। दमे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
विषय - आत्मदमन करनेवाले के हृदय में प्रभु का प्रकाश
पदार्थ -
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन्! यज्ञेषु यज्ञात्मक कर्मों में (त्वां ईडते) = उन कर्मों को करनेवाले आपका ही उपासन करते हैं। जो आप (ऋत्विजम्) = ऋतु ऋतु में उपासनीय हैं, सदा उपासनीय हैं तथा (होतारम्) = उन यज्ञों की पूर्ति के लिये सब आवश्यक पदार्थों के देनेवाले हैं। [२] आप ही (ऋतस्य गोपाः) = ऋत के रक्षक हैं। 'ऋत का रक्षण, अनृत का विध्वंस' यह आपका व्रत ही है। आप (स्वे दमे) = [home] आत्मदमन के होने पर (दीदिहि) = दीप्त होइए। जब कोई भी व्यक्ति अपनी इन्द्रियों आदि का दमन करता है, तो आप उसके हृदय में प्रकाशित होते हैं। उसका हृदय आपका घर बन जाता है, उसका हृदय आपका (स्व-दम) = [Home] होता है ।
भावार्थ - भावार्थ– यज्ञों द्वारा हम उस प्रभु का उपासन करें, जो कि ऋत के रक्षक हैं और आत्मदमन करनेवाले पुरुष के हृदय में दीप्त होते हैं।
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