ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 22/ मन्त्र 4
ऋषिः - गाथी कौशिकः
देवता - पुरीष्या अग्नयः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
पु॒री॒ष्या॑सो अ॒ग्नयः॑ प्राव॒णेभिः॑ स॒जोष॑सः। जु॒षन्तां॑ य॒ज्ञम॒द्रुहो॑ऽनमी॒वा इषो॑ म॒हीः॥
स्वर सहित पद पाठपु॒री॒ष्या॑सः । अ॒ग्नयः॑ । प्र॒व॒णेभिः॑ । स॒ऽजोष॑सः । जु॒षन्ता॑म् । य॒ज्ञम् । अ॒द्रुहः॑ । अ॒न॒मी॒वाः । इषः॑ । म॒हीः ॥
स्वर रहित मन्त्र
पुरीष्यासो अग्नयः प्रावणेभिः सजोषसः। जुषन्तां यज्ञमद्रुहोऽनमीवा इषो महीः॥
स्वर रहित पद पाठपुरीष्यासः। अग्नयः। प्रवणेभिः। सऽजोषसः। जुषन्ताम्। यज्ञम्। अद्रुहः। अनमीवाः। इषः। महीः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 22; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
विषय - अद्रोह
पदार्थ -
[१] (अग्नयः) = प्रगतिशील जीव ! (पुरीष्यासः) = सदा उत्तम अन्न का सेवन करनेवाले होते हैं [पुरीष = अन्नम् श० ८।१।४।५] । सात्त्विक अन्न का सेवन इनकी बुद्धि को भी सात्त्विक बनाता है। ये अग्नि (प्रावणेभिः) = प्रकृष्ट रक्षणों के साथ (सजोषसः) = समानरूप से प्रीतिवाले होते हैं। ये शरीर, मन व बुद्धि तीनों का रक्षण करते हैं- तीनों के रक्षण को समान महत्त्व देते हैं । [२] ये अग्नि (यज्ञं जुषन्ताम्) = सदा यज्ञात्मक उत्तम कार्यों का सेवन करते हैं। (अद्रुहः) = कभी किसी का द्रोह नहीं करते। (अनमीवा:) = रोगरहित होते हैं और (मही: इष:) = महत्त्वपूर्ण प्रेरणाओं को ये प्राप्त करनेवाले होते हैं, अर्थात् अन्तः स्थित प्रभु की प्रेरणाओं को ये सुनते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ- सात्त्विक अन्न का सेवन करते हुए हम शरीर, मन व बुद्धि का रक्षण करें। यज्ञशील हों। द्रोह से ऊपर उठें, नीरोग हों। प्रभु - प्रेरणाओं को सुननेवाले बनें ।
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