ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 22/ मन्त्र 5
ऋषिः - गाथी कौशिकः
देवता - पुरीष्या अग्नयः
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
इळा॑मग्ने पुरु॒दंसं॑ स॒निं गोः श॑श्वत्त॒मं हव॑मानाय साध। स्यान्नः॑ सू॒नुस्तन॑यो वि॒जावाग्ने॒ सा ते॑ सुम॒तिर्भू॑त्व॒स्मे॥
स्वर सहित पद पाठइळा॑म् । अ॒ग्ने॒ । पु॒रु॒ऽदंस॑म् । स॒निम् । गोः । श॒श्व॒त्ऽत॒मम् । हव॑मानाय । सा॒ध॒ । स्यात् । नः॒ । सू॒नुः । तन॑यः । वि॒जाऽवा॑ । अ॒ग्ने॒ । सा । ते॒ । सु॒ऽम॒तिः । भू॒तु॒ । अ॒स्मे इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इळामग्ने पुरुदंसं सनिं गोः शश्वत्तमं हवमानाय साध। स्यान्नः सूनुस्तनयो विजावाग्ने सा ते सुमतिर्भूत्वस्मे॥
स्वर रहित पद पाठइळाम्। अग्ने। पुरुऽदंसम्। सनिम्। गोः। शश्वत्ऽतमम्। हवमानाय। साध। स्यात्। नः। सूनुः। तनयः। विजाऽवा। अग्ने। सा। ते। सुऽमतिः। भूतु। अस्मे इति॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 22; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
विषय - वेदवाणी की प्राप्ति
पदार्थ -
मन्त्र व्याख्या ३.१.२३ पर द्रष्टव्य है ।सूक्त का भाव यही है कि सोमरक्षण से शक्ति प्राप्त करके हम अग्नि बनें। अग्नि बनने के लिए ही यह 'देवश्रवाः 'देवों से ज्ञान प्राप्त करनेवाला बनता है तथा 'देववात:' =सूर्यादि देवों से प्रेरणा प्राप्त करता है। सूर्य से 'गति द्वारा चमकने' की प्रेरणा प्राप्त करता है, तो चन्द्रमा से 'आह्लाद' की प्रेरणा प्राप्त करता है। इस प्रकार ये देवश्रवा और देववात अपना उत्तम भरण करने के कारण 'भारतौ' कहलाते हैं । ये ही अगले सूक्त के ऋषि हैं। ये प्रभु से प्रार्थना करते हैं।