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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 29/ मन्त्र 15
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - अग्निः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    अ॒मि॒त्रा॒युधो॑ म॒रुता॑मिव प्र॒याः प्र॑थम॒जा ब्रह्म॑णो॒ विश्व॒मिद्वि॑दुः। द्यु॒म्नव॒द्ब्रह्म॑ कुशि॒कास॒ एरि॑र॒ एक॑एको॒ दमे॑ अ॒ग्निं समी॑धिरे॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒मि॒त्र॒ऽयुधः॑ । म॒रुता॑म्ऽइव । प्र॒ऽयाः । प्र॒थ॒म॒ऽजाः । ब्रह्म॑णः । विश्व॑म् । इत् । वि॒दुः॒ । द्यु॒म्नऽव॑त् । ब्रह्म॑ । कु॒शि॒कासः॑ । आ । ई॒रि॒रे॒ । एकः॑ऽएकः । दमे॑ । अ॒ग्निम् । सम् । ई॒धि॒रे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अमित्रायुधो मरुतामिव प्रयाः प्रथमजा ब्रह्मणो विश्वमिद्विदुः। द्युम्नवद्ब्रह्म कुशिकास एरिर एकएको दमे अग्निं समीधिरे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अमित्रऽयुधः। मरुताम्ऽइव। प्रऽयाः। प्रथमऽजाः। ब्रह्मणः। विश्वम्। इत्। विदुः। द्युम्नऽवत्। ब्रह्म। कुशिकासः। आ। ईरिरे। एकःऽएकः। दमे। अग्निम्। सम्। ईधिरे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 29; मन्त्र » 15
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 34; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    [१] गतमन्त्र के अनुसार प्रभुस्मरणपूर्वक कार्यों में लगनेवाले व्यक्ति (अमित्रायुधः) = 'कामक्रोध-लोभ' आदि शत्रुओं से युद्ध करनेवाले होते हैं। ये व्यक्ति (मरुतां प्रयाः इव) = प्राणों के सैन्य से के समान होते हैं। प्राणसाधना करनेवालों के प्राणापान रोगों व वासनाओं पर आक्रमण करनेवाले सैनिक ही बन जाते हैं। ये (प्रथमजा:) = प्रथम स्थान में स्थित होनेवाले, अर्थात् उत्तम सात्त्विक गति में स्थित होनेवाले बनते हैं। (ब्रह्मणः) = वेद द्वारा (विश्वम्) = सम्पूर्ण ज्ञान को (इद्) = निश्चय से (विदुः) = जाननेवाले होते हैं । [२] ये (कुशिकासः) = [कोशते शब्दकर्मणः नि० २।२२] प्रभु के नामों का उच्चारण करनेवाले (द्युम्नवद् ब्रह्म) = ज्योतिर्मय स्तोत्र को (एरिरे) = अपने में प्रेरित करते हैं। प्रभु का स्तवन करते हैं उन स्तवन के शब्दों के अर्थ का भावन [चिन्तन] करते हैं। उन स्तवनों से प्रेरणा प्राप्त करके ये अपने जीवन को उत्कृष्ट बनाते हैं। (एकः एकः) = कुशिकों में से प्रत्येक (दभे) = इन्द्रियों के दमन में प्रवृत्त होता है, अर्थात् इन्द्रियदमन इनका मुख्य ध्येय होता है। इसमें सफल होकर ये (अग्निम्) = उस प्रकाशमय प्रभु को (समीधिरे) = समिद्ध करते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- वासनाओं के साथ संघर्ष में चलते हुए हम इन्द्रियदमन द्वारा प्रभुदर्शन करनेवाले बनें।

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