ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 29/ मन्त्र 16
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यद॒द्य त्वा॑ प्रय॒ति य॒ज्ञे अ॒स्मिन्होत॑श्चिकि॒त्वोऽवृ॑णीमही॒ह। ध्रु॒वम॑या ध्रु॒वमु॒ताश॑मिष्ठाः प्रजा॒नन्वि॒द्वाँ उप॑ याहि॒ सोम॑म्॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒द्य । त्वा॒ । प्र॒ऽय॒ति । य॒ज्ञे । अ॒स्मिन् । होत॒रिति॑ । चि॒कि॒त्वः॒ । अवृ॑णीमहि । इह॒ । ध्रु॒वम् । अ॒याः॒ । ध्रु॒वम् । उ॒त । अ॒श॒मि॒ष्ट्ह॒ाः । प्र॒ऽजा॒नन् । वि॒द्वान् । उप॑ । या॒हि॒ । सोम॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदद्य त्वा प्रयति यज्ञे अस्मिन्होतश्चिकित्वोऽवृणीमहीह। ध्रुवमया ध्रुवमुताशमिष्ठाः प्रजानन्विद्वाँ उप याहि सोमम्॥
स्वर रहित पद पाठयत्। अद्य। त्वा। प्रऽयति। यज्ञे। अस्मिन्। होतरिति। चिकित्वः। अवृणीमहि। इह। ध्रुवम्। अयाः। ध्रुवम्। उत। अशमिष्ठाः। प्रऽजानन्। विद्वान्। उप। याहि। सोमम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 29; मन्त्र » 16
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 34; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 34; मन्त्र » 6
विषय - श्रेयो-वरण, न कि प्रेयस् का
पदार्थ -
[१] हे (होत:) = सब आवश्यक पदार्थों को देनेवाले प्रभो ! (चिकित्वः) = सर्वज्ञ प्रभो ! (यद्) = जब (अद्य) = आज (इह) = यहाँ (अस्मिन्) = इस (प्रयति यज्ञे) = प्रकृष्ट गतिवाले जीवनयज्ञ में (त्वा अवृणीमहि) = आपका वरण करते हैं, तब आप (ध्रुवम्) = निश्चय से (अया:) = हमें प्राप्त होइये । वस्तुतः इस जीवन में सारा उत्कर्ष या अपकर्ष इस बात पर निर्भर करता है कि हम प्रकृति का वरण करते हैं या प्रभु का । प्रकृति का वरण हमारे अपकर्ष या समाप्ति का कारण बनता है और प्रभु का वरण हमें उत्कर्ष की ओर ले जानेवाला होता है। कठोपनिषद् के शब्दों में मन्द पुरुष प्रेय का ही वरण करता है, कोई धीर ही श्रेय का वरण करता है। [२] हे प्रभो! आप हमें प्राप्त होइये, (उत) = और (ध्रुवम्) = निश्चय से (अशमिष्ठा:) = हमारे जीवन को शान्त करिए। प्रकृति के वरण में शान्ति नहीं, वहाँ उत्तरोत्तर इच्छा बढ़ती जाती है और हमारा जीवन अत्यधिक अशान्त हो जाता है। (प्रजानन्) = हमारी स्थिति को (पूर्णतया) = जानते हुए (विद्वान्) = सर्वज्ञ आप (सोमम्) = सौम्य स्वभाववाले विनीत मुझ उपासक को उपयाहि प्राप्त होइये। मैं सौम्य बनकर आपकी प्राप्ति का अधिकारी बनूँ।
भावार्थ - भावार्थ- हम इस जीवन यज्ञ में प्रभु का वरण करें, न कि प्रकृति का । प्रभु के वरण से हमारा जीवन शान्त बने। हम सौम्य-विनीत बनकर प्रभुप्राप्ति के अधिकारी बनें । सम्पूर्ण सूक्त चिन्तन व वेदाध्ययन (स्वाध्याय) द्वारा प्रभुदर्शन पर बल दे रहा है। अन्ततः हमें चाहिए कि हम प्रभु का ही वरण करें, प्रकृति में न उलझ जाएँ। 'प्रभु की कामना' से ही अगले सूक्त का प्रारम्भ होता है -
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