ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 30/ मन्त्र 1
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इ॒च्छन्ति॑ त्वा सो॒म्यासः॒ सखा॑यः सु॒न्वन्ति॒ सोमं॒ दध॑ति॒ प्रयां॑सि। तिति॑क्षन्ते अ॒भिश॑स्तिं॒ जना॑ना॒मिन्द्र॒ त्वदा कश्च॒न हि प्र॑के॒तः॥
स्वर सहित पद पाठइ॒च्छन्ति॑ । त्वा॒ । सो॒म्यासः॑ । सखा॑यः । सु॒न्वन्ति॑ । सोम॑म् । दध॑ति । प्रयां॑सि । तति॑क्षन्ते । अ॒भिऽश॑स्तिम् । जना॑नाम् । इन्द्र॑ । त्वत् । आ । कः । च॒न । हि । प्र॒ऽके॒तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
इच्छन्ति त्वा सोम्यासः सखायः सुन्वन्ति सोमं दधति प्रयांसि। तितिक्षन्ते अभिशस्तिं जनानामिन्द्र त्वदा कश्चन हि प्रकेतः॥
स्वर रहित पद पाठइच्छन्ति। त्वा। सोम्यासः। सखायः। सुन्वन्ति। सोमम्। दधति। प्रयांसि। तितिक्षन्ते। अभिऽशस्तिम्। जनानाम्। इन्द्र। त्वत्। आ। कः। चन। हि। प्रऽकेतः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 30; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
विषय - प्रभुभक्त का सुन्दर जीवन
पदार्थ -
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (सोम्यासः) = सौम्य वृत्ति के (सखायः) = मित्रता की भावनावाले लोग (त्वा इच्छन्ति) = आपको ही चाहते हैं। प्रकृति में फँसनेवाले लोग सोम्य न रहकर धनमदमत्त हो जाते हैं और सखा न रहकर राग-द्वेष से भरपूर होते हैं। ये आपका वरण करनेवाले लोग (सोमं सुन्वन्ति) = अपने शरीर में सोम का अभिषव करते हैं। इस सोम [वीर्य] के रक्षण से ही वस्तुतः वे सोम्य बनते हैं और सखित्व की वृत्तिवाले होते हैं। ये प्रभु-प्रेमी भक्त (प्रयांसि दधति) = सात्त्विक अन्नों को धारण करते हैं- सात्त्विक भोजन को ही करते हैं अथवा [प्रयस्-effort] सदा श्रमशील होते हैं इनका जीवन क्रियामय होता है। [२] (जनानाम्) = लोगों के (अभिशस्तिम्) = अपमानजनक शब्दों को [accusation] व हिंसाओं [injure] को तितिक्षन्ते सहते हैं । गालियों का उत्तर गालियों में नहीं देने लगते और कभी बदले की भावना से कार्यों को नहीं करते । [३] हे प्रभो ! (हि) = वस्तुतः इन लोगों के जीवनों में (त्वद्) = आपसे ही (कश्चन) = कोई अद्भुत (आ-प्रकेतः) = प्रकाश प्राप्त होता है। इनके जीवनों में आपका ज्ञान ही कार्य कर रहा होता है ।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभुभक्त 'सोम्य, सखा, वीर्यरक्षक, क्रियानिष्ठ व सहनशील' होते हैं ।
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