ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 32/ मन्त्र 17
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
शु॒नं हु॑वेम म॒घवा॑न॒मिन्द्र॑म॒स्मिन्भरे॒ नृत॑मं॒ वाज॑सातौ। शृ॒ण्वन्त॑मु॒ग्रमू॒तये॑ स॒मत्सु॒ घ्नन्तं॑ वृ॒त्राणि॑ सं॒जितं॒ धना॑नाम्॥
स्वर सहित पद पाठशु॒नम् । हु॒वे॒म॒ । म॒घवा॑नम् । इन्द्र॑म् । अ॒स्मिन् । भरे॑ । नृऽत॑मम् । वाज॑ऽसातौ । शृ॒ण्वन्त॑म् । उ॒ग्रम् । ऊ॒तये॑ । स॒मत्ऽसु॑ । घ्नन्त॑म् । वृ॒त्राणि॑ । स॒म्ऽजित॑म् । धना॑नाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
शुनं हुवेम मघवानमिन्द्रमस्मिन्भरे नृतमं वाजसातौ। शृण्वन्तमुग्रमूतये समत्सु घ्नन्तं वृत्राणि संजितं धनानाम्॥
स्वर रहित पद पाठशुनम्। हुवेम। मघवानम्। इन्द्रम्। अस्मिन्। भरे। नृऽतमम्। वाजऽसातौ। शृण्वन्तम्। उग्रम्। ऊतये। समत्ऽसु। घ्नन्तम्। वृत्राणि। सम्ऽजितम्। धनानाम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 32; मन्त्र » 17
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 7
विषय - धन विजय
पदार्थ -
मन्त्र व्याख्या ३.३०.२२ पर द्रष्टव्य है।
भावार्थ - सम्पूर्ण सूक्त गृहस्थ में भी संयम का महत्त्व स्पष्ट कर रहा है। संयम ही प्रभुप्राप्ति का मार्ग है। इस संयम के लिए ही प्राणसाधना करनेवाला पुरुष इडा, पिंगला व सुषुम्णा आदि नाड़ियों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करता है। ये नाड़ियाँ 'नद्यः' कहलाती हैं, रुधिररूप जल के प्रवाहवाली नदियाँ तो ये हैं ही। इन पर प्रभुत्व को पा लेनेवाला इर्ष्या, द्वेष व क्रोध से ऊपर उठा हुआ 'विश्वामित्र' अगले सूक्त का ऋषि है। यह इन नाड़ियों के लिए कहता है -
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