ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 33/ मन्त्र 1
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - नद्यः
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
प्र पर्व॑तानामुश॒ती उ॒पस्था॒दश्वे॑इव॒ विषि॑ते॒ हास॑माने। गावे॑व शु॒भ्रे मा॒तरा॑ रिहा॒णे विपा॑ट्छुतु॒द्री पय॑सा जवेते॥
स्वर सहित पद पाठप्र । पर्व॑तानाम् । उ॒श॒ती इति॑ । उ॒पऽस्था॑त् । अश्वे॑इ॒वेत्यश्वे॑ऽइव । विसि॑ते॒ इति॒ विऽसि॑ते । हास॑माने॒ इति॑ । गावा॑ऽइव । शु॒भ्रे इति॑ । मा॒तरा॑ । रि॒हा॒णे इति॑ । विऽपा॑ट् । शु॒तु॒द्री । पय॑सा । ज॒वे॒ते॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र पर्वतानामुशती उपस्थादश्वेइव विषिते हासमाने। गावेव शुभ्रे मातरा रिहाणे विपाट्छुतुद्री पयसा जवेते॥
स्वर रहित पद पाठप्र। पर्वतानाम्। उशती इति। उपऽस्थात्। अश्वेइवेत्यश्वेऽइव। विसिते इति विऽसिते। हासमाने इति। गावाऽइव। शुभ्रे इति। मातरा। रिहाणे इति। विऽपाट्। शुतुद्री। पयसा। जवेते इति॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 33; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
विषय - विपाट् + शुतुद्रि
पदार्थ -
[१] 'शुतुद्री' शब्द (सुषुम्णा) = के लिए प्रयुक्त होता है। इसमें ध्यान करने से योगी शीघ्र [शु] ब्रह्मलोक को जाता है [द्रु] सो यह शुतुद्रि है [शुदुद्री शुतुद्री] । इडा 'विपाश्' कहलाती है। इस नाड़ी में अभ्यास करने से योगी के अज्ञानपाश कट जाते हैं-यह अज्ञान का उत्पाटन कर देती है। ये (विपाट् शुतुद्री) = इडा व सुषुम्णा (पयसा) = ज्ञानजल के साथ (प्रजवेते) = शीघ्र गतिवाली होती हैं । इनमें प्राणों के संयम से ज्ञान की वृद्धि होती है। [२] (पर्वतानाम्) = मेरुदण्ड ही शरीरस्थ मेरुपर्वत है। उन मेरुपर्वतों के उपस्थात्- गोद से यह आगे बढ़ती हैं। इनका स्थान इस मेरु पर्वत में है। उशती= (कामयमाने) ये साधक के हित-कामनावाली हैं। ये इस प्रकार शीघ्र गतिवाली होती हैं, इव-जैसे कि विषिते अश्वे-बन्धन से रहित दो घोड़ियाँ हों । हासमाने= (हासति: स्पर्धाकर्मा) घोड़ियाँ भी वे, जो कि परस्पर स्पर्धा करती हुई वेग से आगे बढ़ती हैं। ये विपाट् व शुतुद्री शुभ्रे गावा इव दो शुभ्र गौवों के समान हैं। अथवा मातरा दो धेनु- माताओं के समान हैं, जो कि रिहाणे-वत्स को चाटने की कामनावाली आगे बढ़ती है। (३) यहाँ 'शुतुद्रि' का ध्यान करते हुए घोड़ियों की उपमा दी गई है, यह परमात्मप्राप्ति के मार्ग पर हमें शीघ्रता से ले चलती है। 'विपाट्' के लिये 'मातरा गावा' की उपमा दी गई है, यह ज्ञानप्रकाश को प्राप्त करानेवाली है। ये दोनों ज्ञानजल को लिये हुए, वेग से उस परमात्मा की ओर हमें ले चलती हैं। नदियाँ समुद्र की ओर, ये नाड़ियाँ उस आनन्दमय प्रभु की ओर (स+मुद्)।
भावार्थ - भावार्थ - इडा व सुषुम्णा में प्राणों का संयम करने से हम अपना ज्ञान बढ़ाते हुए प्रभु की ओर गतिवाले होते हैं ।
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