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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 52/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    पु॒रो॒ळाशं॑ पच॒त्यं॑ जु॒षस्वे॒न्द्रा गु॑रस्व च। तुभ्यं॑ ह॒व्यानि॑ सिस्रते॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒रो॒ळास॑म् । प॒च॒त्य॑म् । जु॒षस्व॑ । इ॒न्द्र॒ । आ । गु॒र॒स्व॒ । च॒ । तुभ्य॑म् । ह॒व्यानि॑ । सि॒स्र॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुरोळाशं पचत्यं जुषस्वेन्द्रा गुरस्व च। तुभ्यं हव्यानि सिस्रते॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुरोळाशंम्। पचत्यम्। जुषस्व। इन्द्र। आ। गुरस्व। च। तुभ्यम्। हव्यानि। सिस्रते॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 52; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! तू (पचत्यम्) = पचने में उत्तम (पुरोडाशम्) = [पुर: दाश्यते यज्ञार्थम्] जिसका पहले यज्ञ के लिए अर्पण किया गया है, उस यज्ञशेष को (जुषस्व) = प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाला बन (च) = और (आ गुरस्व) = अत्यन्त उद्यमशील जीवनवाला हो। हम भोजन के लिए यज्ञशेष का ही सेवन करनेवाले बनें और सदा श्रमशील हों। [२] प्रभु कहते हैं कि इस प्रकार का जीवन बितानेवाले (तुभ्यम्) = तेरे लिए (हव्यानि सिस्रते) = सब हव्य-पदार्थ प्राप्त होते हैं। इसे आवश्यक पदार्थों की किसी प्रकार कमी नहीं रहती।

    भावार्थ - भावार्थ- हम यज्ञशेष के रूप में सुपच भोजन का ही सेवन करें और क्रियाशील जीवनवाले हों।

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