ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 52/ मन्त्र 1
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
धा॒नाव॑न्तं कर॒म्भिण॑मपू॒पव॑न्तमु॒क्थिन॑म्। इन्द्र॑ प्रा॒तर्जु॑षस्व नः॥
स्वर सहित पद पाठधा॒नाऽव॑न्तम् । क॒र॒म्भिण॑म् । अ॒पू॒पऽव॑न्तम् । उ॒क्थिन॑म् । इन्द्र॑ । प्रा॒तः । जु॒ष॒स्व॒ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
धानावन्तं करम्भिणमपूपवन्तमुक्थिनम्। इन्द्र प्रातर्जुषस्व नः॥
स्वर रहित पद पाठधानाऽवन्तम्। करम्भिणम्। अपूपऽवन्तम्। उक्थिनम्। इन्द्र। प्रातः। जुषस्व। नः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 52; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
विषय - प्रातः सवन में सोम का रक्षण
पदार्थ -
[१] हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले जीव! तू (प्रातः) = जीवन के इस प्रातः सवन में जीवन के प्रथम चौबीस वर्षों में (नः) = हमारे इस सोम का (जुषस्व) = प्रीतिपूर्वक सेवन कर। सोम को तू शरीर में ही सुरक्षित करने का प्रयत्न कर। [२] यह सोम (धानावन्तम्) = प्रशस्त (धान) = अवधान व रक्षणवाला है। इसके रक्षण से तेरी चित्तवृत्ति केन्द्रित होगी और तू अपना रक्षण कर पाएगा। (करम्भिणम्) = यह [क रम्भ्] आनन्द से आलिंगन करनेवाला है। इसके रक्षण से तेरा जीवन आनन्दयुक्त होगा। (अपूपवन्तम्) = [इन्द्रियमपूप: ऐ० २।२४] यह रक्षित हुआ हुआ सोम तेरी इन्द्रियों को उत्तम बनाएगा। (उक्थिनम्) = यह तुझे प्रशस्त उक्थों व स्तोत्रोंवाला करेगा। इसके रक्षण से तेरा झुकाव प्रभुस्तवन की ओर होगा।
भावार्थ - भावार्थ- हम सोम का रक्षण करें। इससे हमारे शरीर का रक्षण होगा, आनन्द की प्राप्ति होगी, इन्द्रियाँ प्रशस्त होंगी और हम प्रभुस्तवन की वृत्तिवाले बनेंगे ।
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