ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 51/ मन्त्र 12
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
प्र ते॑ अश्नोतु कु॒क्ष्योः प्रेन्द्र॒ ब्रह्म॑णा॒ शिरः॑। प्र बा॒हू शू॑र॒ राध॑से॥
स्वर सहित पद पाठप्र । ते॒ । अ॒श्नो॒तु॒ । कु॒क्ष्योः । प्र । इ॒न्द्र॒ । ब्रह्म॑णा । शिरः॑ । प्र । बा॒हू इति॑ । शू॒र॒ । राध॑से ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र ते अश्नोतु कुक्ष्योः प्रेन्द्र ब्रह्मणा शिरः। प्र बाहू शूर राधसे॥
स्वर रहित पद पाठप्र। ते। अश्नोतु। कुक्ष्योः। प्र। इन्द्र। ब्रह्मणा। शिरः। प्र। बाहू इति। शूर। राधसे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 51; मन्त्र » 12
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 7
विषय - 'कुक्षि, शिर व बाहुओं' में सोम का प्रवेश
पदार्थ -
[१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! यह उत्पन्न हुआ हुआ सोम (ते कुक्ष्यो:) = तेरे कुक्षि-प्रदेशों को (प्र अश्नोतु) = प्रकर्षेण व्यापनेवाला हो। उनमें व्याप्त हुआ हुआ यह गुर्दे आदि में उत्पन्न हो जानेवाले भयंकर विकारों से हमारा रक्षण करे। [२] यह सोम (ब्रह्मणा) = ज्ञानवर्धन के हेतु से (शिरः) = प्र (अश्रोतु) तेरे सिर में व्यापनेवाला हो । मस्तिष्क में प्रज्वलित होनेवाली ज्ञानाग्नि का यही ईंधन होता है। । [३] हे शूर-शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले जीव ! राधसे सब कार्यों में सफलता की प्राप्ति के लिए यह तेरी बाहू भुजाओं में (प्र) = [अश्नोतु] व्यापनेवाला हो।
भावार्थ - भावार्थ– कुक्षियों में प्रविष्ट सोम रोगों का विनाशक है। मस्तक में पहुँचा हुआ यह सोम ज्ञानाग्नि को दीप्त करता है और भुजाओं में यह शक्ति का संचार करता है। सम्पूर्ण सूक्त प्रभुस्तवन व सोमरक्षण द्वारा जीवन को उत्तम बनाने का उपदेश दे रहा है। अगले सूक्त में भी सोमरक्षण पर बल देते हुए कहते हैं कि -
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