ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 51/ मन्त्र 12
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
प्र ते॑ अश्नोतु कु॒क्ष्योः प्रेन्द्र॒ ब्रह्म॑णा॒ शिरः॑। प्र बा॒हू शू॑र॒ राध॑से॥
स्वर सहित पद पाठप्र । ते॒ । अ॒श्नो॒तु॒ । कु॒क्ष्योः । प्र । इ॒न्द्र॒ । ब्रह्म॑णा । शिरः॑ । प्र । बा॒हू इति॑ । शू॒र॒ । राध॑से ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र ते अश्नोतु कुक्ष्योः प्रेन्द्र ब्रह्मणा शिरः। प्र बाहू शूर राधसे॥
स्वर रहित पद पाठप्र। ते। अश्नोतु। कुक्ष्योः। प्र। इन्द्र। ब्रह्मणा। शिरः। प्र। बाहू इति। शूर। राधसे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 51; मन्त्र » 12
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 7
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे इन्द्र ! यस्ते कुक्ष्योर्ब्रह्मणा सह रसः प्राश्नोतु। हे शूर तव शिरो बाहू राधसे प्राश्नोतु तं त्वं पालय ॥१२॥
पदार्थः
(प्र) (ते) तव (अश्नोतु) प्राप्नोतु। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (कुक्ष्योः) उदरपार्श्वयोः (प्र) (इन्द्र) राजवर (ब्रह्मणा) धनेन (शिरः) उत्तमाङ्गम् (प्र) (बाहू) भुजौ (शूर) (राधसे) धनाय ॥१२॥
भावार्थः
हे राजँस्तदेव त्वयाऽऽशितव्यं पातव्यं च यदुदरं प्राप्य विकृतं सद्रोगानुत्पाद्य बुद्धिं न हिंस्याद्येन सततं त्वयि प्रज्ञा वर्द्धित्वा राज्यमैश्वर्यं च वर्धेतेति ॥१२॥ । अत्र राजप्रजाधर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकाऽधिकपञ्चाशत्तमं सूक्तं षोडशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (इन्द्र) राजाओं में श्रेष्ठ जो (ते) आपके (कुक्ष्योः) पेट के आस-पास के भागों में (ब्रह्मणा) धन के साथ रस को (प्र) (अश्नोतु) प्राप्त होवै और हे (शूर) वीर पुरुष ! (ते) आपके (शिरः) श्रेष्ठ अङ्ग मस्तक को (बाहू) भुजाओं को (राधसे) धन के लिये प्राप्त होवे, उसका आप पालन करिये ॥१२॥
भावार्थ
हे राजन् ! वही वस्तु आपको खाना तथा पीना चाहिये कि जो पेट में प्राप्त हो तथा विकृत हो रोगों को उत्पन्न करके बुद्धि का न नाश करे और जिससे निरन्तर आपमें बुद्धि बढ़ कर राज्य और ऐश्वर्य्य बढ़े ॥१२॥ इस सूक्त में राजा और प्रजा के धर्मवर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह इक्यावनवाँ सूक्त और सोलहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
'कुक्षि, शिर व बाहुओं' में सोम का प्रवेश
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! यह उत्पन्न हुआ हुआ सोम (ते कुक्ष्यो:) = तेरे कुक्षि-प्रदेशों को (प्र अश्नोतु) = प्रकर्षेण व्यापनेवाला हो। उनमें व्याप्त हुआ हुआ यह गुर्दे आदि में उत्पन्न हो जानेवाले भयंकर विकारों से हमारा रक्षण करे। [२] यह सोम (ब्रह्मणा) = ज्ञानवर्धन के हेतु से (शिरः) = प्र (अश्रोतु) तेरे सिर में व्यापनेवाला हो । मस्तिष्क में प्रज्वलित होनेवाली ज्ञानाग्नि का यही ईंधन होता है। । [३] हे शूर-शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले जीव ! राधसे सब कार्यों में सफलता की प्राप्ति के लिए यह तेरी बाहू भुजाओं में (प्र) = [अश्नोतु] व्यापनेवाला हो।
भावार्थ
भावार्थ– कुक्षियों में प्रविष्ट सोम रोगों का विनाशक है। मस्तक में पहुँचा हुआ यह सोम ज्ञानाग्नि को दीप्त करता है और भुजाओं में यह शक्ति का संचार करता है। सम्पूर्ण सूक्त प्रभुस्तवन व सोमरक्षण द्वारा जीवन को उत्तम बनाने का उपदेश दे रहा है। अगले सूक्त में भी सोमरक्षण पर बल देते हुए कहते हैं कि -
विषय
राजा जितेन्द्रिय रहे।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! वह सोम, ऐश्वर्य, और बल, शरीर में वीर्य के समान और बलकारी ओषधि रस के समान (ते) तेरे (कुक्ष्योः) दोनों कोखों में, अगल बगल, (प्र अश्नोतु) खूब व्यापे, बढ़े। (ब्रह्मणा) धनैश्वर्य से वा ब्रह्म, वेदज्ञान बड़े बल से (शिरः) शिरस्थान सर्वोच्चपद को भी (प्र अश्नोतु) प्राप्त करे, हे (शूर) शूरवीर ! वह ऐश्वर्य (राधसे) धन की वृद्धि और शत्रु की साधना या वशीकरण के लिये वह ऐश्वर्य वा राष्ट्र (बाहू) शत्रुओं को बाधित या पीड़ित करने वाले बाहुओं के समान सैन्यों को (प्र अश्नोतु) अच्छी प्रकार प्राप्त हो। अर्थात् राष्ट्र का धन कुक्षि रूप वैश्यों, शिर रूप ब्राह्मणों और बाहू रूप क्षत्रियों को प्राप्त हो, इनकी वृद्धि के लिये उपयोग किया जावे। इति षोडशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–४,७-९ त्रिष्टुप्। ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप। १-३ निचृज्जगती। १०,११ यवमध्या गायत्री। १२ विराडगायत्री॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा! रोग होऊन बुद्धीचा नाश होणार नाही असे खान-पान तू केले पाहिजे ज्यामुळे निरंतर बुद्धी वाढून ऐश्वर्य वाढेल. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, heroic lord ruler of the world, whatever you receive into the body of your treasury for asset and energy, may that wealth and energy inspire your mind with knowledge and enlightenment, and strengthen your arms for potential development of the wealth of nations.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the rulers are emphasized.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (noble king) ! may this Soma (invigorating juice) penetrate to our flanks, and may it bring you the idea of obtaining wealth hero. May it (juice) inculcate strength in your arms in order to acquire wealth (by increasing your vigor).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king! you should eat and drink only those things which may not cause disease in your body and may not badly affect your intellect, so that your intellect, kingdom and prosperity may go on increasing.
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